जानिए कौन हैं हिमालयी किरात ? हिमालय की प्राचीन जातियां

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परिकल्पना- डा. हरीश चंद्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति /नयी दिल्ली

दोस्तों, हिमालय के खसों, कोलीयवंशियों और थारुओं के बाद अब इसी क्षेत्र की एक और प्राचीन जाति किरात को लेकर जानकारी लेकर आया हूं। इस साहसी और   परिश्रमी जाति को लेकर  भारतीय पौराणिक साहित्य के पन्ने भरे हैं। खसों के आने से पहले कभी हिमालयी के पूर्वोत्तर क्षेत्र में किरातों का ही राज था। हिमाचल प्रदेश के किन्नौर के लोगों को किरातों का वंशज माना जाता है, जबकि उत्तराखंड में वे मुख्य समाज में विलुप्त हो गए हैं। उत्तराखंड के शिल्पकारों को भी किरात व कोलीय वंशीय लोगों का वंशज माना जाता है। यह भी कहा जाता है कि उत्तराखंड के शिव मंदिरों के पुजारी भी किरातों के ही वंशज हैं।  नेपाल में किरात आज भी अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं। यही  जानकारी इस वीडियों में दूंगा।

माना जाता है कि  किरात सिंधु घाटी सभ्यता के समय से हिमालयी ढलानों में रह रहे है । यह भी कहा जाता है कि हिमालयी क्षेत्र में कोलीय वंशियों के बाद किरात आए। हिमालय का इतिहास लिखने वाले एटकिंसन का मानना है  कि किरात भी हिमालय में उसी रास्ते से आए जहां से नाग व खस आए थे। यानी वे भी कश्मीर के रास्ते आए और पूर्व की ओर बढ़ते चले गए। हालांकि अधिकतर इतिहासकार मानते हैं कि किरात लोग हिमालयी क्षेत्र में कोल जाति के बाद आए। एक तिब्बती-बर्मी जातीय समूह हैं, जो कि अब नेपाल में बड़ी संख्या में है। वे आर्य नहीं हैं और माना जाता है कि बर्मीं -मंगोल समूह से हैं। कहा जाता है कि किरात लोग  पूर्व  में ब्रह्मपुत्र नदी और उसकी सहायक नदियों के किनारे -किनारे हिमालय  क्षेत्र में आए। इन्होंने असम, भूटान, नेपाल में बड़ी बस्तियां बसाईं। यह भी कहा जाता है कि किरात लोग  हिमालय के दक्षिण क्षेत्र में उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश होते हुए कश्मीर तथा मोहनजोदड़ो तक फैल गए थे। किरात भी पशुपालक थे और तीर-कमान से  शिकार करते थे।  सिंधु सभ्यता काल में ये लोग हिमालयी की ढलानों पर बसे थे। प्लिनी, तॉलेमी और मेगस्थनीज़ के लेखों में भी किरातों के विषय में कई उल्लेख हैं। तॉलेमी ने इन्हें किरादिया लिखा है और  भारत में इनकी विस्तृत बस्तियों का उल्लेख किया है।

भारत में तो किरात अपनी पहचान खो चुके हैं, लेकिन नेपाल में उनकी पहचान बनी है। कुछ लोग थारूओं को भी किरातों से जोड़ते हैं,लेकिन  थारु समाज के लोग खुद को राजस्थान मूल का बताते हैं। इतिहासकारों का मानना है कि हिमाचल प्रदेश के किन्नर क्षेत्र के लोग किरातों के वंशज हैं। नेपाल में किरातों के वंशजों में राय, लिंबू आदि माने जाते हैं। राय- राई या खम्बू नेपाल, सिक्किम, तथा दार्जिलिंग क्षेत्र में रहते हैं। राई का असली नाम खम्बू है। राई का मतलब राजा होता है। इसी तरह जनजाति पूर्वी नेपाल, बर्मा, भूटान और भारत के दार्जिलिंग, कलिमपोंग और जलपाईगुड़ी जिले, सिक्किम, असम और नागालैंड में भी रहते हैं।  

हिमालयी क्षेत्र में रहने वाली अन्य जातियों की तरह किरातों को लेकर भी बहुत अधिक अध्ययन नहीं हुए हैं। प्राचीन संस्कृत साहित्य में किरातों का संबंध पहाड़ों और गुफ़ाओं से माना गया है।  उनकी मुख्य जीविका आखेट बताई गई है। यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में किरातों को  पर्वत और कन्दराओं का निवासी बताया गया है। नेपाल में किरातों को किरांती भी कहा जाता है।  नेपाल में अधिकतर किरात अब बौद्ध हैं, लेकिन उनके पूर्वज हिंदू थे। ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि किरात भगवान शिव के उपासक थे। महाभारत में  भी  इनका उल्लेख है। महाभारत वनपर्व  में लिखा है कि अर्जुन एक शुकर के पीछे तीर धनुष लेकर उनका शिकार करने के लिए दौड़ रहे थे। उस समय किरात रूप में भगवान शंकर ने अर्जुन से युद्ध किया था। जहां किरात रूप में भगवान भोलेनाथ और अर्जुन का युद्ध हुआ, वह स्थान उत्तराखंड के श्रीनगर गढ़वाल के पास  अलकनंदा नदी के बामकूल पर बद्रीनाथ रोड पर  एक चट्टी है, जिसका नाम विल्लवकेदार है। भगवान शिव किरातों के ईष्ट देव थे। इसलिए ऋषि वशिष्ठ ने उन्हें ‘शिश्नदेव’ कहा है। शिश्नदेव का अर्थ है लिंग को देवता मानकर पूजने वाले।’ यजुर्वेद अथा अथर्ववेद में इस जाति का उल्लेख पर्वतीय गुफाओं के निवासियों के रूप में किया गया है। रामायण काल में  किरात मौजूद थे। भगवान तश्री राम के वनवास जाने पर उनके कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ कुछ समय के लिए उत्तराखंड के हंदगांव आए थे तो वहां उनको किरात ही मिले थे। मनुस्मृति में कई अन्य अनार्य जातियों के समान किरातों की भी व्रात्य क्षत्रियों में गणना की गई है।

नेपाल में किरात राज्य स्थापित करने वाले यलंबर भी महाभारत से जुड़े हैं। यह उस काल की बात है जब सभी किरात सनातनी यानी आज के हिंदू थे। महाभारत के बर्बरीक को ही नेपाल में यलंबर के नाम से जाना जाता है। वे पांडुपुत्र महाबली भीम और हिमालय की बेटी हिडिंबा के पौत्र और घटोत्कच के पुत्र थे। बर्बरीक ही नेपाल के प्राचीन किरात साम्राज्य के संस्थापक हैं। कुछ लोगों के मन में यह प्रश्न आना स्वाभाविक है कि बर्बरीक तो आर्य भीम के पौत्र थे, फिर वे किरात कैसे हो गए। यह उसी तरह संभव है जिस तरह से नेपाल के शाहवंशी राजा राजस्थान के थे लेकिन उन्होंने खस व गोरखा राज स्थापित किया। बर्बरीक की दादी हिडिंबा तो हिमालयवासी थी। वह आर्य नहीं थी, राक्षस कुल की थी। नेपाल के किरांती राजा बर्बरीक यानी यलंबर ने प्राचीन गोपाल वंश को पराजित करके 800बीसी में काठमाण्डू उपत्यका में किरात साम्राज्य की स्थापना की थी। उनका किरात साम्राज्य पश्चिम में त्रिशूली नदी से पूर्व में तिस्ता नदी तक फैला हुआ था। इस वंश में ३२ किरात राजा हुए।

कुछ लोग हिमालयी क्षेत्र में राज करने वाले कुणिन्द या पुलिन्द को भी किरातों से  जोड़ते हैं। कुणिन्द उत्तराखंड क्षेत्र की पहली राजनैतिक शक्ति थे। उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में तीसरी-चौथी सदी तक कुणिंदों का ही शासन था।

महाभारत में किरातों को हिमालयवासी बताया गया है। वे लोग फल-फूलों का आहार करते थे और मृगछाला पहनते थे। प्राचीन ग्रंथों में इन्हें सुनहरे या पीले रंग का बुलाया गया है। योग वशिष्ठ ग्रंथ  में भगवान श्री रामचंद्र जंगल में किरातों के फैलाए जाल के बारे में बात कहते हैं। इससे  संकेत मिलता है कि प्राचीन युग में किरातों को  शिकारी समुदाय के रूप में देखा जाता था। किरातों को लेकर संस्कृत के महाकवि कालिदास ने भी लिखा है।

किरात शब्द की उत्पति को लेकर कहा जाता है कि किर यानि सिंह और ति यानि लोग मिल कर बना है। अर्थात सिंह की प्रवृत्ति वाले लोग।  यह भी कहा जाता है कि यह पूर्वी नेपाल की किरांती नामक तिब्बती जाति ही है। यह भी संभव है कि किरात शब्द का प्रयोग वनों में रहने वाली जातियों के  होने लगा हो। सिक्किम के पश्चिम स्थित मोरग में आज भी किरात नामक एक जाति बसती है। संभवत: किरातों का मूल निवासस्थान यही रहा होगा। यह भी साक्ष्य मिले हैं कि किरात लोग हिमालय के अलावा मैदानी क्षेत्रों में भी निवास करते थे। मध्य प्रदेश के सांची के स्तूप पर किसी किरातभिक्षु के दान का उल्लेख मिलता है। दक्षिण भारत में नागाजुनीकोंड के एक अभिलेख में भी किरातों का वर्णन हुआ है। माना जाता है कि  किरातों की  कुछ बस्तियां कर्नाटक में भी थी।

सिन्धु और हड़प्पा सभ्यता पूर्व में सरस्वती नदी के ऊपरी भाग और उत्तर में सतलुज-व्यास नदियों के भीतरी भाग तक फैली हुई थी। 3000 ईसा पूर्व से 2500 ई. पूर्व तक सिन्धु सभ्यता के काल में हिमाचल प्रदेश की कोल, आदिम, आग्नेय या निषादवंशी खश, नाग और किन्नर जातियों को समकालीन माना जाता है। इस सभ्यता के अवशेष मोहनजोदडो, हड़प्पा और शिमला की पहाड़ियों के आंचल में बसे रोपड़ तक मौजूद हैं। खुदाई तथा अस्थि-पंजरों से यह पता चलता है कि ये पंजर आदिम आग्नेयकुल या निषादवंशी, मंगोल-किरात, भूमध्य सागरीय कुल और पर्वत प्रदेशीय नामक चार नस्लों के थे। आज इन चार नस्लों की कल्पना द्रविड़, असुर, ब्रात्य, दास, नाग, यक्ष, किन्नर- किरात, ब्राहुई, पार्ण और समैरियन के साथ की जाती है।

दोस्तों, यह थी हिमालयी के किरातों की गाथा। आपको कैसी लगी, अवश्य बताएं। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। जै हिमालय-जै भारत।

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