हिमालयी खसों के लिए क्या लिख गए अंग्रेज !

0
203

परिकल्पना- डा. हरीशचंद्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति/ नयी दिल्ली

दोस्तों, इस बार आपके लिए हिमालयी लोगों की सादगी, ईमानदारी और भोलेपन को लेकर ऐतिहासिक तथ्यों के साथ जानकारी लेकर आया हूं। यह अदभुद जानकारी है। इस जानकारी को मैंने पहाड़ के लोगों के सरोकारों से जोड़ने का प्रयास किया है। जब भारत में अंग्रेजों का शासन था, तब मध्य हिमालयी क्षेत्र में खस प्रभावशाली भूमिका में थे, उनकी खस पहचान कायम थी। इसिलए अंग्रेजों के हिमालयी समाज के लिए खस ही प्रयोग किया। अंग्रेजों के लिखे लेखों को हम खस ही नहीं, पूरे  पहाड़ी समाज के लिए मान सकते हैं।

दोस्तों, संसार का सबसे सीधा- साधा कोई समाज है तो वह है हिमालयी के ढलानें में बसा पहाड़ी लोगों का समाज। यह मैं नहीं कह रहा हूं। यह बात वे लोग कह गए हैं, जिनके राज में  सूर्य कभी नहीं डूबता था। भारत में राज करने वाले अंग्रेज अपने रिकार्ड में लिख गए हैं। मैं जम्मू, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड, पूर्वोत्तर के राज्यों से लेकर नेपाल और भूटान की बात कर रहा हूं। यह लोग जितने सीधे-सादे हैं, उतने ही साहसी भी। लेकिन यही सीधापन इनको अब ग्लोबलाइजेशन के दौर में समाज व राजनीति के हाशिए पर डाल रहा है। उनके संसाधनों, जल, जंगल व जमीन को हड़पने दे रहा है।

अंग्रेजों ने क्या लिखा, यह बताने से पहले इन हिमालयी लोगों को महान युग निर्माता आचार्य चाणक्य  का कथन  ठीक से सुन लेना रखना चाहिए। याद करना चाहिए व इस पर अमल करना चाहिए। आचार्य चाणक्य ने अपने नीति ग्रंथ के सातवें अध्याय के बारहवें श्लोक में कहा है कि —

नात्यन्तं सरलेन भाव्यं गत्वा पश्य वनस्थलीम्।

छिद्यन्ते सरलास्तत्र कुब्जास्तिष्ठन्ति पादपाः।।12।।

अर्थात मनुष्य को अधिक सीधा, सरल नहीं होना चाहिए। जंगल में जाकर देखने से पता लगता है कि सीधे वृक्ष काट लिए जाते हैं, जबकि टेढ़े-मेढ़े पेड़ छोड़ दिए जाते हैं।

लगभग ढाई हजार साल पहले कही गई ये बातें आज भी सत्य हैं। इस श्लोक में महत्वपूर्ण संदेश भी छिपा है। जिन लोगों का स्वभाव जरूरत से ज्यादा सीधा, सरल और सहज होता हैं, उन्हें समाज में हर कदम पर अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। चालक, चतुर और धूर्त लोग इनके सीधे स्वभाव का गलत फायदा उठाते हैं।  ऐसे लोगों को कमजोर, मूर्ख व दब्बू माना जाता है। ज्यादा सीधा स्वभाव मूर्खता की श्रेणी में माना जाता है। वे लोग जो आज भी पहाड़ में हैं,  जिन पर शहरों का रंग नहीं चढ़ा है, वे आज भी बहुत सीधे हैं। पूरे हिमालयी लोगों की बात कर रहा हूं। चाहे भारत के हिमालयी राज्य हों, नेपाल या भूटान हो। अधिकतर हिमालयी लोग सीधे-सादे हैं। यह बात जो मैंने कही, यही आप लोग भी अनुभव करते होंगे कि पहाड़ों में अब भी भोलापन, ईमानदारी व सहृदयता के गुण विद्यमान हैं।  जिन लोगों को शहरों की हवा लग चुकी है, वे भी अन्य समाजों से कई मामलों में बेहतर हैं। परंतु, आज समय की आवश्यकता है कि पहाड़ के लोगों को थोड़ा चतुर और चालक बनने का प्रयास करना चाहिए। ताकि वह जीवन में अपने लक्ष्य प्राप्त कर सके और समाज में बुरे लोगों के बीच सुरक्षित रह सके।

अब हिमालयी समाज की बात करता हूं। हिमालयी क्षेत्र, भारत का हो, या नेपाल का। वहां का समाज खस, किरात, नाग, कुलिंद, तंगण, परतंगण, कोलीय वंशी से लेकर मैदानी क्षेत्रों से गए लोगों ने आपस में मिलकर बनाया। अंग्रेजों के समय तक चूंकि इन क्षेत्रों में खस प्रभावशाली भूमिका में थे, वे अपनी पहचान को खुल कर बताते थे। इसलिए अंग्रेजों ने भी खस संबोधित करते लिखा। खसों समेत पूरा हिमालयी लोग बहुत सीधे, साधे, ईमानदार, परिश्रमी और दूसरों के लिए अपनी जान देने वाले रहे हैं।साहसी व वीर रहे हैं, इसलिए तो आज भी डोगरा, गढ़वाली, कुमांयुनी, गोरखा, नगा रेजीमेंटों के माध्यम से अपनी वीरता का परिचय दे रहे हैं।

इतिहास साक्षी है कि हिमालयी में खसों के बाद मैदानों से वैदिक आर्य भी गए।  खसों को भी आर्यों की शाखा माना जाता है। आर्य एक शब्द है जिसका उपयोग आर्यावर्त यानी प्राचीन अखंड भारत के लोग स्वयं के लिए प्रयोग करते थे। आर्य का अर्थ होता है, आदर्श, अच्छे हृदय वाला, आस्तिक, अच्छे गुणों वाला। वह हिंद-आर्य भाषा बोलने वाला कोई भी व्यक्ति हो सकता है चाहे वह स्त्री हो या पुरुष। आर्य शब्द का प्रयोग महाकुल, कुलीन, सभ्य, सज्जन, साधु आदि के लिए पाया जाता है। पौराणिक और संस्कृत ग्रंथों में आर्य का अर्थ श्रेष्ठ होता है। यह जाति नहीं, बल्कि गुणों के आधार पर था।  भारत का प्राचीन नाम आर्यावर्त ही है।

हिमालयी की शरण में मैदानों से लोग विभिन्न कारणों से गए। अधिकतर लोग तो मैदानों में धर्मांध मुसलिम हमलावरों के आतंक से बचने के लिए पहाड़ों में गए। कुछ बद्री-केदार समेत धर्माटन की यात्रा पर गए और वहीं के हो कर रह गए। हिमालय की शरण में जाने वाले ये सभी लोग भी धार्मिक प्रवृति के थे। सुसंस्कृत  व चरित्रवान थे। जबकि हिमालय की उपत्यकाओं में पहले से रहने वाले खस, किरात, कोल आदि लोग भी भोल-भाले थे। ईमानसार थे, सहृदय थे।  इन  सभी के मिलन से जो सभ्यता हिमालय के ढलानों पर पनपी, वह पहाड़ी सभ्यता अनूठी है। ये लोग आज भी सहृदय, चरित्रवान, वीर, साहसी, वचन के पक्के, ईमानदार और परिश्रमी हैं। ये गुण आज भी इनमें हैं। यदि ये लोग शराब का सेवन का कम कर दें या छोड़ दें तो आज भी उनके जैसे गुण किसी अन्य समाज में नहीं हैं। वे दूसरों पर बहुत जल्दी विश्वास कर लेते हैं। वे आज भी यही मानते हैं की संसार के दूसरे समाजों के लोग भी उनके जैसे ही भोलेभाले हैं। जबकि ऐसा है नहीं। इसलिए ठगे जा रहे हैं।

अब उन बातों पर आता हूं जो की अंग्रेज लिख गए हैं। अंग्रेजों के समय चूंकि इन क्षेत्रों में खसों की संख्या ज्यादा थी और वे प्रभावशाली भूमिका में थे। जम्मू, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और नेपाल के पश्चिमी क्षेत्र में जहां भी खस हैं। वहां की पहाड़ी सभ्यता पर उनका पूरा प्रभाव आज भी है। अंग्रेजों ने इसलिए खसों को लेकर बहुत कुछ लिखा। जो लोग अंग्रेजों के लिखे पर सवाल उठाने वाले हैं वे यह भी सुन लें कि अंग्रेज भले ही भारत को लूटते रहे। परंतु, यह तो मानना ही होगा कि भारत को एक राष्ट बनाने, यहां संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था वकसित करने, अत्याधुनिक सेना गठित करने से लेकर रेल नेटवर्क आदि स्थापित करने जैसे अनेक उल्लेखनीय कार्य भी कर गए। वैशाली गणराज्य की बात तो ठीक है, लेकिन यह भी सच्चाई है कि यदि अंग्रेज न आते तो इस देश में क्रूर व धर्मांध मुसलिमों का राज होता। यानी अफगानिस्तान, पाकिस्तान की तरह भारत की दुर्दशा हो रही होती। तालिबान यहां भी पांव पसार रहा होता।

दोस्तों, अंग्रेजों के लिखे गजेटियर को आज भी प्रमाणिक माना जाता है। मैं उनके लिखे गजेटियर व लेखों को यहां उल्लेख कर रहा हूं।  हिमालय के खसों के  संबंध अंग्रेज लेखक रेवरेंड आर हेबर लिखते हैं कि— विश्व में ऐसी नेक, शांतिप्रिय, जाति शायद ही कोई होगी। इसी तरह  एचजी वॉल्टन का भी मानना रहा है कि नेकी और साहस खसों का पर्याय है और इनकी ईमानदारी लाजवाब है।  ऐसे ही इनकी चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कुमायुं के तत्कालीन कमिश्नर मिस्टर ट्रेल ने भी की है। ट्रेल लिखते हैं  कि चोरी का सर्वथा अभाव तथा गढ़वालियों की अत्यधिक ईमानदारी यहां पर पुलिस की नियुक्ति अनावश्यक कर देती है।  संभवत: यही कारण है कि पहाड़ों में लंबे समय तक पुलिस व्यस्था भी राजस्व विभाग के पटवारी के पास रही और अधिकतर क्षेत्रों में आज भी है।

इस संदर्भ में अल्मोड़ा गजेटियर के लेखक वॉल्टन लिखते हैं  कि खसों में ईमानदारी तथा बहादुरी पर्याप्त मात्रा में पाई जाती है। इनकी ईमानदारी पर तो संदेह तो किया ही नहीं जा सकता है ।  जबान के इतने पक्के हैं कि एक बार में मौखिक तौर पर निर्णीत हो गई तो वह पत्थर की लकीर हो गई। चोरी -चकारी तो नामोनिशान को भी नहीं है।

प्रसिद्ध विद्वान डीडी शर्मा  अपनी पुस्तक -हिमालय के खस- एक ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक विश्लेषण– में लिखते हैं  कि खस लोग निश्चल, सरल स्वभाव, मिलनसार एवं हर प्रकार का सहयोग करने वाले होते हैं। इनमें स्वभावत: छल कपट एवं चातुर्य न होने से इनमें  व्यवहार कुशल, चतुर लोगों में पाई जाने वाले लचीलापन का भी अभाव पाया जाता है। वे जिस बात पर  अड़ जाते थे फिर उसमें विचलित होना तो उन्होंने सीखा ही नहीं था।  इन इनका क्रोध भी भयंकर होता था फलत: क्रोध आने का आगा पीछा सोचे बिना मरने मारने की कोई परवाह नहीं करते थे। इनके इसी स्वभाव के कारण कुमायुंनी में एक कहावत प्रचलित है। – खशिया की रीस, भैंस की तीस- अर्थात खस का  क्रोध और भैंस की प्यास असामान्य होते हैं।

इसी प्रकार स्वभाव से ही आसुक्रोधी होने के कारण ये लोग कभी-कभी ऐसे भी कार्य कर डालते थे जो उनके अपने हितों के विरुद्ध जाते थे। इसलिए हिमाचल प्रदेश में इस प्रकार के आत्मघाती आचरण करने वाले व्यक्ति की खसमति और इस प्रकार के व्यवहार को खशचाल कहा जाता है।  महाभारत के कर्ण पर्व में कहा गया है कि खसों को परम साहसी, कभी हार ना मानने वाले तथा हठी स्वभाव का बताया गया। यह इनका यह सहजात  अनुवांशिक गुण अभी भी इनमें यथावत पाया जाता है ।

कुमायुं केसरी  बद्रीदत्त पांडे अपनी पुस्तक — कुमाऊं का इतिहास– में लिखते हैं कि खस जाति के लोग सच्चे एवं ईमानदार हैं। छल कपट कम है।  हिमाचल प्रदेश पर पंजाब की संस्कृति छा गई है। इसलिए वे लोग उत्तराखंड के लोगों से बहुत आगे हैं। इस मामले में देखें को नेपाली खस व नेपाली और भी सीधे साधे हैं।

उत्तराखंड के लोगों में खस प्रवृति आज भी है। खस प्रवृति ही आज हिमालयी लोगों की प्रवृति है। ये लोग बाहरी लोगों के लिए  जान देने को तैयार रहते हैं। परंतु उनकी कमी भी है, कि वे अपनों की उपेक्षा करते हैं। जब तक वे खुद को बदलेंगे नहीं, ऐसे ही पिसते रहेंगे। एक उदाहरण बहुत है। दिल्ली में अकेले उत्तराखंड के लोग २० लाख बताए जाते हैं लेकिन प्रदेश की राजनीति में इसलिए आज भी लगभग हाशिए पर हैं। कि अपनी मांग को दमदार तरीके से नही उठा पाते।  यही स्थित पहाड़ में भूमि की है। उत्तराखंड के गांवों की खेती की भूमि तभी बचेगी जब यह पहाड़ीपन छोड़ना होगा। यही समय की मांग है। आपको यह रिपोर्ट कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें और हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। जै हिमालय- जै भारत।

 ——————-

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here