….. तो इसलिए उत्तराखंड में जमीन खरीदना चाहते हैं मैदानी लोग

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परिकल्पना- डा. हरीश चंद्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति / नयी दिल्ली

दोस्तों, उत्तराखंड के लिए कठोर भू कानून की वकालत करने वाले वीडियो के बाद यह दूसरा वीडियो है। इसमें उत्तराखंड की भूमि और उसे लेकर मैदानी लोगों की काक दृष्टि को लेकर जानकारी दे रहा हूं।  यह जानकारी देने के साथ ही एक प्रश्न भी छोड़ जा रहा हूं। इस प्रश्न  अवश्य तलाशना। इस बार आपसे पूछ रहा हूं कि दिल्ली समेत उत्तर भारत के लोग उत्तराखंड में ही जमीन क्यों खरीदना चाहते हैं?

आप सभी जानते हैं कि दिल्ली समेत उत्तर भारत के लोग उत्तराखंड में ही जमीन खरीदना चाहते हैं। इन मैदानी लोगों की इच्छा रहती है कि उसे ऐसी जमीन मिल जाए, जो गांव के आसपास हो, जहां से हिमालय दिखे। देवदार, चीड़, बांज, बुरांश के जंगल हों और सामने नदी हो। वे वहां एक कोठी बना लें और चौकीदार के तौर पर किसी पहाड़ी को रख लें। अब प्रश्न यह है कि ऐसी भूमि तो जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, दार्जिलिंग और पूर्वोत्तर में भी है, फिर ये लोग उत्तराखंड में ही जमीन क्यों चाहते हैं। इन कारणों को बताने से पहले मैं उत्तराखंड की भूमि और भूमि सुधार के कानूनों  को लेकर जानकारी दे रहा हूं।

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि उत्तराखंड का अपना भूमि सुधार कानून नहीं है। यह आज भी उत्तर प्रदेश के  कानून – उत्तर प्रदेश जमींदारी विनास एवं भूमि व्यवस्था कानून — से काम चला रहा है। यहां तक कि उत्तराखंड सरकार के पास प्रदेश की भूमि को लेकर ठोस आंकड़े भी नहीं हैं। वैसे भी देशभर में पिछले छह दशकों के भूमि बंदोबस्त नहीं हो पाया है। सरकार के पास भूमि संबंधी आंकड़े सन् 1958-64 के बीच हुए अंतिम बंदोबस्त के हैं। जबकि तब से उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाओं  तथा अन्य कारणों से भोगोलिक व भूमि संरचना में काफी बदलाव हुआ है। इसके अलावा लोगों के पलायन कर देने से बड़ी मात्रा में खेतों को खाली छोड़ दिया गया है। वे अब बंजर हो गए हैं। इस तरह वे भूमि घट गई है जिसमें कृषि उपज हो रही है। वर्ष  2000 के आंकड़ों के अनुसार  उत्तराखंड में तब की कुल 83 लाख12 हजार25 हेक्टेयर कृषि भूमि 8लाख54 हजार 980 परिवारों के नाम दर्ज थी। इनमें से 1लाख 8हजार 883 परिवारों के नाम 4लाख 24हजार 22 हेक्टेयर कृषि भूमि दर्ज थी। अर्थात प्रदेश की कुल कृषि भूमि का लगभग आधा भाग मात्र 12 प्रतिशत किसान परिवारों के कब्जे में थी। जबकि 78 प्रतिशत  किसान आबादी भूमिहीन की श्रेणी में पंहुच चुकी थी। इसके बावजूद प्रदेश की सरकारें इस भूमि को भी बाहरी लोगों को बेचने के लिए लालायित है।

यह भी जानना आवश्यक है कि उत्तराखंड में भूमि सुधार के दो-दो कानून लागू हैं।  दोनों ही उत्तर प्रदेश   के समय के हैं। यहां उत्तर प्रदेश के -उत्तर प्रदेश जमींदारी विनास एवं भूमि व्यवस्था कानून के साथ ही -कुमायुं उत्तराखंड जमींदारी विनास एवं भूमि सुधार कानून (कूजा एक्ट) भी लागू है। यह कानून संयुक्त उत्तर प्रदेश के समय पर्वतीय क्षेत्र के जिलों के लिए 1960 में बनाया गया था।  उत्तर प्रदेश जमींदारी विनास एवं भूमि व्यवस्था कानून में पंचायतों को बेनाप–बंजर, परती–चरागाह, पनघट–पोखर, तालाब–नदी आदि जमीनों के प्रबंध व वितरण का अधिकार दिया गया था। लेकिन कूजा कानून के तहत इस अधिकार को रोक दिया गया। यानी उत्तराखंड में ग्राम पंचायतों को इस भूमि के प्रबंध व वितरण का अधिकार नहीं है। जबकि पहाड़ में स्कूल, कालेज, अस्पताल, तकनीकी संस्थान, स्टेडियम, पंचायती भवन आदि के लिए किसानों की नाप भूमि निशुल्क सरकार को देने की शर्त शामिल है।

उत्तराखंड राज्य बनने पर तब भाजपा सरकार ने ही 2002 में हिमाचल के भूमि कानून की तर्ज पर एक अध्यादेश लाई थी। लेकिन कांग्रेस सरकार आने पर एनडी तिवारी सरकार  ने एक कमेटी गठित कर दी ।  कमेटी ने उस कानून में शामिल कठोर प्रावधानों को दंतविहीन बना दिया। इस तरह अलग राज्य के विरोधी रहे तिवारी ने उत्तराखंड के शहरी क्षेत्रों में बिल्डरों और भूमाफिया के लिए दरवाजे खोल दिए। तिवारी ने एक और व्यवस्था कर दी। इसके तहत बाहरी लोगों के लिए ग्रामीण क्षेत्र में भी 500 वर्गमीटर तक भूमि खरीदने का  कर दिया। बाद में मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूरी की सरकार ने इसे घटा कर 250 वर्गमीटर तय कर दिया।लेकिन भू माफिया और बिल्डर लॉबी अदालत चली गई। मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया। सुप्रीम कोर्ट ने  250 वर्ग मीटर तक भूमि सीमा की सीमा को सही माना। परंतु भाजपा के त्रिवेंद्र सिंह रावत ने तो सारी सीमाएं खत्म कर इसे बढ़ाकर 12.50 एकड़ कर दिया। इस तरह गांवों की जमीन खरीदने की छूट दे दी गई।

प्रदेश के सरकारी आंकड़े बताते हैं कि उत्तराखंड में कृषि योग्य भूमि लगभग 13 प्रतिशत है। प्रदेश में अभिलिखित वन क्षेत्र 34 हजार 651 वर्ग किमी है, जो कि राज्य के कुल क्षेत्र का लगभग 65  प्रतिशत है। उत्तराखंड की लम्बाई पूरब से पश्चिम 358 किमी, चौड़ाई उत्तर से दक्षिण 320 किमी है। कुल क्षेत्रफल 53हजार 483 वर्गमील और कुल भूमि का क्षेत्रफल 55लाख 92हजार 361 हेक्टेयर है।  इसका 88 प्रतिशत भू-भाग पर्वतीय व 12 प्रतिशत भू-भाग मैदानी है। राज्य गठन के समय नवम्बर 2000 में प्रदेश में  34लाख 98हजार 447 हेक्टेयर भूमि में वन  थे। जबकि कृषि भूमि मात्र 83लाख 12हजार 25 हेक्टेयर थी। इसके अलावा बेनाप-बंजर 10लाख 15हजार 41 हेक्टेयर, ऊसर तथा अयोग्य श्रेणी 29लाख 47हजार 56 हेक्टेयर थीं।  तब उत्तराखंड की कुल भूमि का 63 प्रतिशत वन, 14 प्रतिशत कृषि, 18 प्रतिशत बेनाप-बंजर और 5 प्रतिशत बेकार (अयोग्य) भूमि थी। यह भी कह सकते हैं की राज्य बनने के बाद प्रदेश में कृषि योग्य भूमि घटी है।

पूरे भारत की तरह उत्तराखंड में भी पिछले छह दशकों से भूमि बंदोबस्त नहीं हुआ है। यह भी जानने लायक है कि सन् 1823 के भूमि बंदोबस्त के समय पहाड़ में 20 प्रतिशत भूमि पर खेती होती थी, परंतु  सन् 1865 में अंग्रेजों ने जब वन विभाग का गठन कर वन कानूनों को लागू किया तो  किसानों के हाथ से जमीन छिनने लगी थी ।  सन् 1958 के अंतिम बंदोबस्त के समय हरिद्वार को छोड़कर उत्तराखंड में मात्र 9 प्रतिशत कृषि भूमि ही बची थी। अबके आंकड़े बताते हैं  कि  उत्तराखंड राज्य बनने के बाद कृषि भूमि में से एक लाख हेक्टेयर से ज्यादा भूमि कृषि से बाहर निकल चुकी है। इसी मात्र 13 – 14  प्रतिशत भूमि पर मैदानी लोगों की गिद्ध दृष्टि है। यदि यह भूमि भी हाथ ने निकल गई तो उत्तराखंड के लोगों के पास क्या बचेगा। कभी सोचा???

 

अब बताता हूं कि मैदानी क्षेत्र के लोगों को उत्तराखंड की भूमि क्यों रास आ रही है। इसके कारण जो समझ में आते हैं, उनमें पहला तो यही है कि उत्तराखंड सबसे निकट है। दिल्ली से देहरादून की दूरी 230 किलोमीटर है, जबकि दिल्ली से शिमला लगभग 370 किलोमीटर दूर है।

दूसरा कारण यह है कि उत्तराखंड का भूमि कानून बहुत लचीला है। जम्मू-कश्मीर में अब तक बाहरी लोग जमीन खरीद नहीं सकते थे। अब धारा 370 और 35ए समाप्त होने के बाद भी वहां आतंकवदियों के भय से शायद ही कोई व्यक्ति जमीन खरीदेगा। मात्र एक दुकान खरीदने वाले व्यक्ति की आतंकी हत्या कर चुके हैं।  हिमाचल प्रदेश का भूमि कानून बाहरी लोगों को जमीन खरीदने की अनुमित नहीं देता है।

तीसरा कारण यह है कि उत्तराखंड का राजनीतिक नेतृत्व  बहुत कमजोर है। नेताओं ने ही बाहरी लोगों के लिए जमीन खरीदने का रास्ता आसान बनाया है। इन नेताओं ने भूमि कानून को दंतविहीन बना दिया।

चौथा कारण पलायन है। जो लोग शहरों में बस चुके हैं वे अपनी पुश्तैनी भूमि को बाहरी लोगों को बेचने में लगे हैं।

पांचवा कारण यह है की पहाड़ के लोग बहुत ही सीधे-सादे हैं। किसी पर भी तुरंत विश्वास कर लेते हैं। बाहरी लोगों की खातिरदारी के लिए मरते हैं, हालांकि अपनों की उपेक्षा करते हैं।

रिखणीखाल ब्लॉक के कलवाड़ी गांव के दिल्ली पुलिस में  असिसटेंट सब इंस्पेक्टर हरेंद्र प्रसाद हिन्दवान  कहते है कि भारतीयों की आस्था के प्रतीक के रूप में देवभूमि बरबस लोगो को अपनी ओर आकर्षित करती  है। जम्मू-कश्मीर में व्याप्त अस्थिरता और उसके मुकाबले एक नजदीकी सुंदर पर्यटक स्थल के रूप में उत्तराखंड का महत्व मैदानी लोगों के लिए बढ़ा है। इसी तरह पिथौरागढ़ के राजकीय इंटर कॉलेज  कुम्डार में गणित के प्रवक्ता  प्रकाश सिंह रावल कहते हैं कि उत्तराखंड में पर्यटन व धार्मिक पर्यटन, दोनों ही हैं। वहां शांति हैं। इसलिए लोगों को उत्तराखंड आकर्षित करता है। एनएसपीसी के पूर्व उप महाप्रबंधक जेपी  ढौडियाल कहते हैं कि उत्तराखंड की भूमि पूरे देश में सबसे शांति पूर्ण जगह है। इसमें भी  सोने में सुहागा है यह है कि वहां के लोग शान्ति प्रिय हैं। इसलिए बाहर के लोग वहां धोंस से रहते हैं। मैदानी क्षेत्रों में नरक का जीवन जीने वाले भी वहां एक ठेला लगाकर मनमाना पैसा लेकर सामान बेचते हैं और मजे में रहते हैं। इसलिए सभी वहां जाना चाहते हैं।

तो दोस्तों, यह है उत्तराखंड की भूमि और मैदानी लोगों की इस भूमि पर काक दृष्टि की बात। आपको कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें और हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। जै हिमालय- जै भारत।

 

 

 

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