आचार्य चाणक्य और सम्राट चद्रगुप्त मौर्य को क्यों प्रिय थे हिमालयी वीर

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आचार्य चाणक्य और सम्राट चद्रगुप्त मौर्य को क्यों प्रिय थे हिमालयी वीर

परिकल्पना- डा. हरीश चंद्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति

नयी दिल्ली

आप इसे हिमालयीलोग यूट्यूब चैनल मंे भी सुन सकते हैं।

दोस्तों इस बार आपके लिए इतिहास के पन्नों से गायब हुए उन हिमालयी  वीरों की जानकारी दे रहा हूं, जिनकी भारत के प्रथम विशाल मौर्य साम्राज्य के गठन में प्रमुख भूमिका रही है। इतिहासकारों ने उन महान वीरों को लगभग भुला ही दिया।  भारत के मैदानों में जब वैदिक आर्य सभ्यता पनप रही थी, उसी समय हिमालय के ढलानों पर नाग, किरात, कुलिंद, खस आदि की महान सभ्यता फल-फूल रही थी। बाद में मैदानों से हिमालयी क्षेत्र में गए वैदिक ब्राह्मणों व क्षत्रियों ने हिमालयी सभ्यताओं के साथ घुलमिल कर वैदिक व खस सभ्यता का मिलन कर भारतीय सभ्यता के निर्माण में अमूल्य योगदान दिया। परंतु, इतिहासकारों की दृष्टि इस ओर भी कभी नहीं गई। अधिकतर मैदानी लोग आज भी हिमालय की महान सभ्यता को लेकर कुछ नहीं जानते हैं। हिमालयी उनके लिए बर्फ से ढका पहाड़ भर है।  हिमालय की संस्कृति, इतिहास, लोक आदि की जानकारी देने के लिए ही यह हिमालयीलोग चैनल शुरू किया गया है। आज आपको भारत के उस महान  मौर्य साम्राज्य की नींव रखने वालों में शामिल  हिमालय के वीरों को जानकारी दे रहा हूं।

 

दोस्तों, आप जानते हैं कि महान आचार्य चाणक्य के मार्गदर्शन में सम्राट  चन्द्रगुप्त मौर्य  संपूर्ण  भारत को एक साम्राज्य के अधीन लाने में सफल रहे। चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण की तिथि स 321 ई.पू. मानी जाती है। उन्होंने लगभग 24 वर्ष तक शासन किया। मेगस्थनीज ने चार साल तक चन्द्रगुप्त की सभा में एक यूनानी राजदूत के रूप में सेवाएँ दी। ग्रीक और लैटिन लेखों में चन्द्रगुप्त को क्रमशः सैण्ड्रोकोट्स और एण्डोकॉटस के नाम से जाना जाता है। चन्द्रगुप्त के सिहासन संभालने से पहले सिकन्दर ने उत्तर पश्चिमी भारतीय उपमहाद्वीप पर आक्रमण किया था, लेकिन 324 ईसा पूर्व में उसकी सेना ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया, तो वह अपने देश लौट गया था। उसके लौटने के बाद उसके विजित क्षेत्रों को  चंद्रगुप्त ने जीत लिया था।

चंद्रगुप्त मौर्य ने सिकंदर के विजित क्षेत्रों से लेकर मगध के नंद साम्राज्य पर विजय प्राप्त करने के लिए जो सेना गठित की थी, उसमें हिमालय क्षेत्र के वीर भी शामिल थे। यह भी कह सकते हैं कि इस वीरों की प्रमुख भूमिका रही। तब हिमालय की ढलानों पर नाग, कुलिंद, खस किरात, आदि जातियां रह रही थी। इनके आयुधजीवी संगठन भी थे। यानी ये वीर पेशेवर सैनिक थे और मैदानी राज्यों के राजा अपने राज्य और प्रजा भी रक्षा के लिए इसकी सेवाएं लेते थे। आचार्य चाणक्य का इन आयुधजीवी सैनिकों पर बड़ा विश्वास किया था । ये पेशेवर लड़ाकू हिमालयी वीर तब सम्राट चंद्रगुप्त की सेना में अग्रिम हिस्से में ही रहते थे।  मगध साम्राज्य पर इनके दम पर ही चंद्रगुप्त को जीत पाए थे।

महान लेखक विशाखदत्त के ग्रंथ मुद्राराक्षस  के अनुसार हिमालयी क्षेत्र के राजाओं ने सम्राट चंद्रगुप्त का साथ दिया था। आचार्य चाणक्य और चंद्रगुप्त ने नंद साम्राज्य की विशाल सेना को पराजित करने के लिए  हिमालय के किसी भाग के नरेश पर्वतेश्वर या पर्वतक से सहायता ली थी। आचार्य  चाणक्य को  कौटिल्य और विष्णु गुप्त के नाम से भी जाना जाता है। मुद्राराक्षस के अनुसार आचार्य चाणक्य ने किरात,कुलिंद ,और खश आदि युद्धप्रिय लोगों को चंद्रगुप्त मौर्य की सेना में भर्ती किया था।  इसी तरह डा. शिवप्रसाद डबराल चारण अपनी पुस्तक कुलिंद जनपद का प्राचीन इतिहास- एक में लिखते हैं कि उसके अधीन शक, यवन, किरात, कंबोज, बाह्लीक, खस आदि की विशाल सेना ने पाटलिपुत्र को घेर लिया था। पर्वतेश्वर के पुत्र मलयकेतु के अधीन  कुलत यानी कुल्लू नरेश चित्रवर्मा, मलय नरेश सिंहनाद, कश्मीर नरेश पुष्कराक्ष, सिंधु की उफरली घाटी के नरेश  सिंधुषेण  तथा सिंधुपार के किसी जनपद के नरेश मेघाक्ष और चंद्रगुप्त की सेनाओं ने मगध पर आक्रमण किया।  इन सेनाओं में खस, गांधार, यवन, शक, कुलैत आदि थे।

यह भी जानने लायक है कि  मैदानों के इतिहासकारों ने एक झूठ फैलाया कि चंद्रगुप्त का मित्र पर्वतेश्वर ही पोरस यानी पुरु था। जबकि यूनान के इतिहासकारों के लेखों से साफ है कि सिकंदर के यूनान लौटने के  कुछ दिनों बाद ही उसके सेनापति युदामस ने छल कपट से पौरस की हत्या कर दी थी। अर्थात नंदों के मगध पर चंद्रगुप्त की विजय से पहले ही पौरुप मारा  जा चुका था।  पौरस यानी पुरू यानी राजा पुरुषोत्तम का राज्य पंजाब में झेलम से लेकर चेनाब नदी तक फैला हुआ था। वर्तमान लाहौर के आस-पास उसकी राजधानी थी। ग्रीक साहित्य में झेलम और चिनाब नदियों तक के क्षेत्र को  असिस्नस और ह्यीपसिस कहा जाता है। दूसरी ओर  पर्वतेश्वर, जैसा कि नाम से साफ है वह किसी पर्वतीय राज्य का राजा था।      जिन विद्वानों ने पर्वतेश्वर की पहचान पोरस से करने का प्रयास किया, उनके पास इसके पीछे कोई ठोस आधार आज भी नहीं है।

पर्वतेश्वर, पब्बत, पब्बतक के ऐतिहासिक अस्तित्व की जैन परंपरा से भी पुष्टि होती है। मुद्राराक्षस नाटक में कुलूत यानी कुल्लू, मलय, कश्मीर तथा सैंधव यानी सिंधी की उपरली घाटी के नरेशों का उल्लेख होने से माना जाता है कि पर्वतेश्वर का राज्य कुल्लू से पूर्व में होना चाहिए। जैन ग्रथों के अनुसार हिमवंतकूट के नरेश पर्वतक की सहायता से चाण्यक ने नंद साम्राज्य पर विजय प्राप्त की। हिमवतकूट हिमालय का कोई क्षेत्र होना चाहिए। कालिदास के अनुसार  हेमकूट गंधमादन पर्वत  मंदाकिनी नदी की उपत्यका में था। पालि ग्रंथों में गढ़वाल क्षेत्र को हिमवंत कहा गया है। बौद्ध वृत्तांतों में भी आचार्य चाणक्य के पर्वतक नामक घनिष्ठ मित्र का उल्लेख मिलता है यूनान में  प्रचलित कथाओं में भी इस मैत्री का उल्लेख मिलता है।  एच डब्ल्यू टॉमस ने हिस्ट्री ऑफ इंडिया में इसका उल्लेख किया है।

 

यह भी कहा जाता है कि नंद साम्राज्य को समाप्त करने के लिए आचार्य चाणक्य ने त्रिगर्त के राजा परवतेश से संधि करके सहायता मांगी थी।  जैनधर्म के ग्रन्ध परिशिष्टपर्वन में मिलता है कि चाणक्य हिमवतकूट आया था।  बोद्ध ग्रंथों से भी यह जानकारी मिलती है की आचार्य चाणक्य का पर्वतक नामक मित्र था।  चंद्रगुप्त ने कुलिंद राज्य को शिरमोरय की सज्ञा दी थी। जो बाद में  सिरमौर बन गया।

चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म 345 ई.पूर्व में हुआ था। उनका शासन काल राज 322-298 ई.पू. रहा है। उनके पास एक जटिल सैन्य संरचना थी। यही एक कारण था कि मौर्य साम्राज्य लगभग पूरे भारत में फैल गया। मौर्य सेना के पास 4 प्रकार के सैनिक थे- गज यानी हाथी सवार, रथ सवार, तुरंगा यानी घुड़सवार  और पाद यानी पैदल सेना । इस सेना का मुख्य भाग काम्बोज, यवन और शक, खस, किरात सहित कई आयुधजीवी यानी पेशेवर योद्धाओं से बना था। चन्द्रगुप्त की सेना में शक, यवन, किरात, कम्बोज, पारसीक तथा बाह्लीक भी रहे होंगे। प्लूटार्क के अनुसार सान्द्रोकोत्तस ने सम्पूर्ण भारत को छह लाख  सैनिकों की विशाल वाहिनी द्वारा जीतकर अपने अधीन कर लिया।

कहा जाता है की आचार्य चाणक्य ने चंद्रगुप्त की सेना में चोरों, म्लेच्छों, आटविकों तथा शस्त्रोपजीवी श्रेणियों को भी शामिल किया था। आचार्य चाणक्य यानी कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा है कि सैनिकों की भरती चोरों, म्लेच्छों, आटविकों तथा शस्त्रोपजीवी यानी आयुधजीवियों से करनी चाहिए। सिकन्दर के आक्रमण के समय लगभग समस्त उत्तर भारत पर धनानन्द का क्रूर शासन था। आचार्य चाणक्य ने नन्द साम्राज्य को समाप्त करने का संकल्प लिया था।  ब्राह्मण ग्रन्थों में ‘नन्दोन्मूलन’ का श्रेय आचार्य चाणक्य को दिया गया है।

ह्वेनसांग के विवरण से पता चलता है कि सिकंदर ने लगभग 326 ई पूर्व भारत पर आक्रमण किया था यह ब्यास नदी तक पहुंच गया था जहाँ उस का मुकाबला पोरस से हुआ था।  सिकंदर के सैनिक लड़कर  थक गए थे उन्होंने हिमालय के दुर्गम और बीहड़ क्षेत्र में जाने से मना  कर दिया था वे घर जाना चाहते थे। और आगे जाने से माना कर दिया। ये माना जाता है कि उन में से कुछ सैनिक कुल्लू के मलाणा गाँव में बस गए थे। तभी मलाणा वासी अपने आप को उनका वंशज मानते है। ग्रीक इतिहासकार जस्टिन के उल्लेखों से प्रमाणित होता है कि सिकन्दर की मृत्यु के बाद सेल्यूकस को उसके स्वामी के सुविस्तृत साम्राज्य का पूर्वी भाग उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ। सेल्यूकस 305 ई.पू. के आसपास सिन्धु के किनारे आ उपस्थित हुआ। ग्रीक लेखक इस युद्ध का ब्योरेवार वर्णन नहीं करते। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि चन्द्रगुप्त की शक्ति के सम्मुख सेल्यूकस को झुकना पड़ा। अत: सेल्यूकस ने अपनी बेटी का विवाह चन्द्रगुप्त से कर दिया और एरिया यानी, हिरात, एराकोसिया यानी कंदहार, परोपनिसदाइ यानी काबुल और गेद्रोसिय यानी बलूचिस्तान के प्रान्त देकर उससे संधि कर ली थी। चन्द्रगुप्त ने भी सेल्यूकस को पांच सौ हाथी भेंट किए।

सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य की सेना के अग्रभाग में हिमालय के वीर रहते थे। उन को नियमित रूप से वेतन मिलता था। दरअसल, बौद्ध  उपदेशों के कारण सैनिकों में युद्ध के प्रति विरक्ति भरने लगी थी। इस उपदेशों में उन्हें बताया गया था कि युद्ध में प्राण देने वालों को नरक गति या पापयोनि में जन्म लेना होता है। इसलिए आचार्य चाणक्य को हिमालयी वीरों की आवश्कता पड़ी, जोकि पेशेवर योद्धा थे। महाभारत के युद्ध में भी अपनी वीरता का परिचय दे चुके थे।

तो, दोस्तों, आपका यह जानकर अच्छा लगा होगा की महाभारत के धर्म युद्ध से लेकर विशाल मौर्य साम्राज्य के गठन में भी हिमालयी वीरों की महानतम भूमिका रही है। वे आज भी भारत माता की सेवा में लगे हैं। आपको, हिमालयी वीरों की यह गाथा कैसी लगी, वश्य बताएं। हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना ने भूलना। जै हिमालय- जै भारत।

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