शोधपत्र: धंधेबाजों की गिरफ्त में उत्तराखंड की पत्रकारिता

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हिंदी पत्रकारिता के जनक व कुमायुंनी और खड़ी बोली के आदि कवि गुमानी पंत की धरती उत्तराखंड की पत्रकारिता आज पथभ्रमित हो चली है। प्रदेश में कुकरमुत्तों की तरह निकल रहे पत्र-पत्रिकाओं खबरिया चैनल और वेबसाइट देखकर स्पष्ट हो जाता है कि इन सभी की प्राथमिकता यहां के जनसरोकार नहीं हैं, बल्कि पत्रकारिता की आड़ में अपने विभिन्न व्यवसायों को बढ़ाना है। जिनकी काक दृष्टि यहां के संसाधनों पर है। देशभर से पत्रकारों के भेष में उत्तराखंड आए दलालों और धंधेबाजों ने यहां के राजनीतिक व प्रशासनिक तंत्र में गहरी घुसपैठ कर दी है। इन फर्जी पत्रकारों, अफसरों और नेताओं का यह गठजोड़ इतना मजबूत हो चुका है कि जनसरोकारों की पत्रकारिता दम तोडऩे लगी है। पीत पत्रकारिता कर रहे ये दलाल इतने ताकतवर हो चुके हैं कि उनके खिलाफ बोलना ‘जल में रह कर मगरमच्छ से बैर’ जैसा हो गया है।

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शोधपत्र:  धंधेबाजों की गिरफ्त में उत्तराखंड की पत्रकारिता

  डॉ हरीश चंद्र लखेड़ा

हिंदी पत्रकारिता के जनक व कुमायुंनी और खड़ी बोली के आदि कवि गुमानी पंत की धरती उत्तराखंड की पत्रकारिता आज पथभ्रमित हो चली है। प्रदेश में कुकरमुत्तों की तरह निकल रहे पत्र-पत्रिकाओं खबरिया चैनल और वेबसाइट देखकर स्पष्ट हो जाता है कि इन सभी की प्राथमिकता यहां के जनसरोकार नहीं हैं, बल्कि पत्रकारिता की आड़ में अपने विभिन्न व्यवसायों को बढ़ाना है। जिनकी काक दृष्टि यहां के संसाधनों पर है। देशभर से पत्रकारों के भेष में उत्तराखंड आए दलालों और धंधेबाजों ने यहां के राजनीतिक व प्रशासनिक तंत्र में गहरी घुसपैठ कर दी है। इन फर्जी पत्रकारों, अफसरों और नेताओं का यह गठजोड़ इतना मजबूत हो चुका है कि जनसरोकारों की पत्रकारिता दम तोडऩे लगी है। पीत पत्रकारिता कर रहे ये दलाल इतने ताकतवर हो चुके हैं कि उनके खिलाफ बोलना ‘जल में रह कर मगरमच्छ से बैर’ जैसा हो गया है। जबकि कभी इसी धरती से गिरजादत्त नैथानी, विश्वंभर दत्त चंदोला,बद्रीदत्त पांडे, भक्त दर्शन, भैवरदत्त धूलिया, सत्य प्रकाश रतूड़ी जैसे पत्रकार थे, जो पत्रकाािता को मिशन के तौर पर करते रहे। इन सभी पर  गांधी जी का गहरा प्रभाव था और यही असर उनकी पत्रकारिता पर दिखता था।

दूसरी ओर इन महान पत्रकारों की भूमि उत्तराखंड में, खासतौर पर प्रदेश की राजधानी देहरादून अब देशभर से पत्रकार के भेष में आए धंधेबाजों से भर गई है। ये दलाल पत्रकारिता की आड़ में स्टिंग आदि के नाम पर ब्लैकमेल का धंधा कर रहे हैं। इन दलालों ने अपनी  काली करतूतों से देवभूमि में पत्रकारिता की गंगा को प्रदूषित कर मैली  कर दिया है। प्रदेश में राजनीति और पत्रकारिता का ऐसा गठजोड़ हो गया है, जिसके टूटने की संभावनाएं लगभग  समाप्त हो गई हैं। इनके तार दिल्ली में कांग्रेस, भाजपा समेत विभिन्न दलों के बड़े बेताओं से भी हैं, ऐसे में प्रदेश की सत्ता में  भाजपा व कांग्रेस में से कोई भी दल रहे, इस  धंधेबाजों के काम पर असर नहीं पड़ता है।

उत्तराखंड में पत्रकारिता का अतीत जन सरोकारों से जुड़ा गौरवपूर्ण रहा है। यह पहाड़ी क्षेत्र भले ही भले ही संसाधनों के मामले में सक्षम न रहा हो, लेकिन बदरीनाथ जी-केदारनाथ जी की भूमि के लोग हमेशा से संस्कारों से संपन्न रहे हैं। वे आज भी अपनी बौद्धिक संपदा से देश-दुनिया को भी समृद्ध कर रहे हैं। यहां पत्रकारिता के माध्यम से लोगों ने स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लिया गया।  कुली बेगार जैसी कुप्रथा को दूर करने के आंदोलन से लेकर  चिपको, डोला पाली, नशा नहीं,रोजगार दो, विश्वविद्यालय जैसे आंदोलनों को जन-जन तक फैलाने में भी पत्रकारिता उत्प्रेरक की भूमिका में रही। यहां के समाचारपत्रों ने आंदोलनों की भूमि उत्तराखंड में जनसरोकार के मुद्दों को हमेशा ही प्राथमिकता दी। अलग राज्य उत्तराखंड आंदोलन में तो समाचार पत्रों और पत्रकारों की बड़ी भूमिका रही है। इस आंदोलन को पहाड़ से अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाने में समाचार पत्रों ने ही प्रमुख भूमिका निभाई। राज्य गठन के बाद भी नदियों पर बड़े बांधों का विरोध, जंगलों की आग, प्राकृतिक आपदा जैसे मामलों को बड़ा मुद्दा बनाते रहे।

परंतु, उत्तराखंड में आज की पत्रकारिता का चेहरा-मोहरा बदल गया है। इस छोटे से पहाड़ी राज्य से निकल रहे समाचार पत्रों की संख्या सोचने पर विवश कर देती है कि आखिरकार इतने निकल क्यों रहे हैं। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद यहां से कुकरमुत्तों की तरह अखबार निकलने लगे। भारत के समाचार पत्रों के पंजीयक कार्यालय (आरएनआई) के अनुसार 31 मार्च, 2018 तक देशभर में कुल 1,18,239 पंजीकृत पत्र-पत्रिकाएं पंजीकृत थीं। इसमें 17,573 समाचार पत्र और 1,00,666 पत्रिकाएं थीं। उत्तराखंड में इनमें से कुल 3,518 पत्र-पत्रिकाएं पंजीकृत थीं। यह जानकर आश्चर्य होगा कि उत्तराखंड से 399 दैनिक समाचार पत्र निकलते हैं। बाकी में 2,053 साप्ताहिक, 384 पाक्षिक, 499 मासिक, 104 त्रैमासिक, 12 वार्षिक और 67 अन्य हैं।   (http://rni.nic.in/all_page/pin201718.htm)

खासबात यह है कि उत्तराखंड में बिहार से ज्यादा अखबार निकलते हैं। 2017 में उत्तराखंड से कुल 3026 समाचार पत्र निकल रहे थे। अकेले देहरादून से ही हिंदी के 108 और अंग्रेजी के 7 तथा अन्य भाषाओं के 17 समाचार पत्रों समेत कुल 132 दैनिक समाचार पत्र निकल रहे थे।  स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में  हिमाचल टाइम्स, दून दर्पण, जन लहर, उत्तर उजाला, नैनीताल समाचार , युगवाणी, गढ़वाल पोस्ट, बद्री विशाल, सीमांत वार्ता, जयंत, आदि प्रमुख हैं, बाकी में अधिकतर डमडमडिगा टाइम्स जैसे ही हैं। वैसे तो यहां दिल्ली व अन्य क्षेत्रों के प्रमुख समाचार पत्र भी पहुंचते हैं लेकिन उत्तराखंड से निकलने वाले समाचार पत्रों में अमर उजाला, दैनिक जागरण के अलावा राष्ट्रीय सहारा, दैनिक हिंदुस्तान, हिंदुस्तान टाइम्स, पायनियर, शाह टाइम्स  आदि भी प्रकाशित होते हैं।  ‘यहां के बाकी अखबारों के नाम सुनकर ही पता चल जाता है कि यहां किस तरह की पत्रकारिता हो रही है। उदाहरण के तौर पर सुबह का सूरज, अपने लोग, सलार ए हिंद, मानव जाति, निष्पक्ष समाचार ज्योति, विभोर वार्ता, जोखिम, स्पष्ट आवाज, कलम का दायित्व,  अभियान टाइम्स, भारत रत्न केसरी, स्वच्छ विचार, हुकुमत एक्सप्रेस, नगराज दर्पण, आलम ए तस्वीर, न्यूज डिटेल, आज नैनीताल,  ठाकुर साहब टाइम्स, लम्बा सफर, एक्शन इंडिया, खबर लाए हैं, सलूजा टाइम्स, क्राइम पेट्रोल, क्राइम स्टोरी, क्राइम अफेयर्स, मंगल टाइम्स आदि हैं। जानने लायक यह है कि वे सभी प्रदेश सरकार से मान्यताप्राप्त भी हैं। ऐसे अखबारों के कारण अमर उजाला और दैनिक जागरण को कोई चुनौती नहीं मिल पा रही है। (लखेड़ा, 2020)

जबकि कभी यहां मिशन की पत्रकारिता करने वाले सत्यपथ, कर्मभूमि, शक्ति जैसे दर्जनों समाचारपत्रों ने आजादी की लड़ाई भी लड़ी। ये अखबार छोटे अवश्य थे लेकिन  इनकी भूमिका बहुत बड़ी थी। आज यहां से निकलने वाले अधिकतर अखबारों के कर्ताधर्ता उत्तराखंड मूल के नहीं हैं। वे पत्रकारिता की आड़ में धंधा करने वहां पहुंचे हैं। राष्ट्रीय स्तर के छोटे-बड़े लगभग सभी समाचार पत्रों और खबरिया चैनलों यहां रिपोर्टर, स्टिंगर हैं। कई स्वयंमू मालिक व संपादक भी हैं। इन सभी को सबसे पहले  तो  विज्ञापन चाहिए। इसलिए मीडिया के अधिकतर पत्रकारों का ध्यान पत्रकारिता की बजाए अपने संस्थान को ज्यादा बिजनस देने में रहता है। इसके अलावा कई को अपने मालिकों, संपादकों के गेस्ट हाउस, होटलों आदि के लिए यहां जमीन दिलानी होती है।  चारधाम यात्रा से लेकर पर्यटक स्थलों में मालिकों, संपादकों व वरिष्ठों के लिए सपरिवार ठहरने  का इंतजाम करना होता है। मालिक व संपादकों के पारिवारिक व संस्थान के समारोहों में यहां के मंत्रियों को ले जाना  होता है। इस धंधे में वे अपने लिए भी माल बटोरने लगते हैं। आज कई पत्रकार यहां विभिन्न तरह के कार्यों के ठेके भी लेने लगे हैं।  कई ने अपनी पत्नी, बच्चों से लेकर रिश्तेदारों को सरकारी नौकरी भी दिलवा दी है। यह देखने वाली बात है कि फटेहाल स्टिंगर भी देहरादून आकर कुछ समय में भी कोठी व लंबी कार का मालिक बन जाता है। यहां के अधिकतर मीडिया संस्थानों के प्रमुख पदों पर उत्तराखंड से बाहर के लोग हैं, जो कि यहां पत्रकारिता से ज्यादा  अपने संस्थानों के आर्थिक व अन्य हितों का ज्यादा पोषण करने को प्राथमिकता देते हैं। वैसे तो देशभर में पत्रकारिता की यही दर्दशा हो चुकी है। पत्रकारों के ब्लैकमेलिंग के किस्से आए दिन सुनाई देते हैं। लेकिन उत्तराखंड में बाहर के फर्जी पत्रकारों के कारण  बुरी स्थिति में है। देश के अन्य हिस्सों की तरह यहां भी खबरिया चैनलों ने अपने माइक ऐसे लोगों को बेचे हैं, वास्तव में अधिकतर मीडिया घराने अपने संवाददाताओं से नियमित रूप से विज्ञापन एजेंट का काम करवाते हैं, इसलिए पत्रकार भी विज्ञापन पाने के लिए समाचारों के माध्यम से दबाव बनाते हैं।  एजेंडा सेटिंग करते हैं। उनका एजेंडा सेटिंग जनसरोकारों से नहीं होता है, बल्कि अखबार का सर्कुलेशन बढ़ाने अथवा खबरिया चैनल की टीआरपी बढ़ाने के लिए होता है। चुनाव के समय यही  चैनल और समाचार पत्र पेड न्यूज के तहत पैसा कमाते  हैं। इसके अलावा दलालों की यह फौज अपने मालिकों के लिए अन्य कारोबार का रास्ता सुगम बनाने के लिए काम करते हैं। प्रेस कांउंसिल भी इनके खिलाफ खामोश रहती है। यह इसलिए भी हो रहा है कि प्रदेश में लंबे समय से राजनीतिक नेतृत्व बहुत कमजोर है। जबकि अफसरशाही भ्रष्टाचार में लिप्त  है।

कमोबेश यही बात छोटे अखबारों पर लागू होती है। यहां एक -एक आदमी के नाम पर 20-20 अखबार पंजीकृत रहे हैं। यही वजह है कि प्रदेश सरकार को कुछ साल पहले आदेश निकालना पड़ा था कि एक परिवार-एक समाचार पत्र। ज्यादा अखबार निकालने से इनको लाभ यह है कि ज्यादा विज्ञापन मिलता है। वे अपने  परिवार के सभी लोगों को  मान्यता दिला देते हैं। इसके बाद प्रदेश की बसों में मुफ्त यात्रा का लाभ मिलने लग जाता है। प्रेस कार्ड रखन के बाद वे पुलिस , प्रशासन पर धौस भी जमाने लग जाते हैं। अब यही काम वेबसाइटों के माध्यम से होने लगा  है। 2010 में उत्तराखंड को लेकर देश-दुनिया से एक दर्जन वेबसाइट भी नहीं थी, जबकि आज उत्तराखंड से ही सैकड़ों वेबसाइट निकल रही हैं।  इस पीत पत्रकारिता में  ईमानदार पत्रकार हाशिए पर चला गया है। खासतौर पर पहाड़ का ईमानदार व सीधा-साधा पत्रकार कुंठित हो रहा है। हालांकि कई पहाड़ी पत्रकार भी अब इस धंधे में निपुण हो चुके हैं।

अब प्रश्न यह पैदा होता है कि आखिरकार उत्तराखंड में देशभर से फर्जी पत्रकारों का अड्डा कैसे बन गया। ये फर्जी पत्रकार इतने ताकतवर हैं कि सरकार किसी भी दल की रह, उनके लिए मंत्रियों, नेताओं से लेकर अफसरों के दरवाजे हर समय खुले रहते हैं। जबकि ईमानदार पत्रकारों को ये नेता व अफसर मिलने का समय तक नहीं देते। वास्तव में यहां के नेताओं व कुछ अफसरों ने ही शुरू से दलाल किस्त के पत्रकारों भरपूर इस्तेमाल किया। बाद में यही फर्जी पत्रकार इनको ब्लैक मेल करने लगे। नेताओं, अफसरों व पत्रकारों यह धंधा चल पड़ा है। कुछ धंधेबाजों के किए स्टिंग सामने भी आए थे, जिनका उद्देश्य नेताओं को ब्लैक मेल करना ही था।  पत्रकारों के कई समूह हैं जो नेताओं व अफसरों के लिए जासूसी भी करते हैं।

इसका उत्तर संभवत: यही है कि उत्तराखंड से पलायन के कारण वहां के अधिकतर प्रबुद्ध लोग दूसरे शहरों में बस गए हैं। उत्तराखंड मूल के कई पत्रकार दिल्ली में अपनी ईमानदारी और काम के लिए अलग पहचा रखते हैं, जबकि उत्तराखंड में वहां के मूल निवासी पत्रकार लगभग हाशिए पर हैं। वहां मीडिया में नीति निर्धारक के पदों पर बाहर से गए दलाल किस्म के लोग  बैठाए गए हैं। इसलिए यह सोचनीय विषय है कि जिस उत्तराखंड की धरती में पत्रकारिता के मूल्य गढ़े गए, वहां आज दलालों का अड्डा कैसे हो गया। आजादी के दौर में ‘गिरजादत्त नैथानी, विश्वंभर दत्त चंदोला,बद्रीदत्त पांडे, भक्त दर्शन, भैवरदत्त धूलिया, सत्य प्रकाश रतूड़ी जैसे नाम तब राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित थे। वे केवल पत्रकार नहीं थे, वे अपने-अपने इलाकों में प्रतिष्ठित जननेता थे। उनके अखबार केवल सूचना देने के औजार नहीं थे, स्वाधीनता आंदोलन के मजबू्त हथियार भी थे और स्थानीय जनता के दुख-दर्द और परेशानियों से गहरे जुड़े रहते थे। (सिंह, 2007)

यह सच है कि आज आजादी के दौर की पत्रकरिता की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। मीडिया घरानों को चलाने के लिए पैसा भी चाहिए। यै पैसा विज्ञापनों से मिल जाता है। मगर, पत्रकारिता की आड़ में दूसरे धंधे करना कहां तक जायज है। वास्तव में आज की पत्रकारिता को आज बाजार संचालित कर रहा है। बाजार को देखकर समाचार गढ़े जा रहे हैं। उत्तराखंड में समाचार पत्रों के स्थानीयकरण के जिलों के संस्करण निकल रहे हैं। एक जिले की खबर दूसरे जिले में नहीं जा रही है। समाचार पत्रों से गांवों की खबरें नदारद हैं। जनसरोकार की खबरों की बजाए नेताओं, अफसरों व विज्ञापनदाताओं के जन्मदिन जैसेे समाचार दिखते हैं।  मीडिया ग्रुप अब समाचार पत्रों की श्रृंखला के साथ कई खबरिया चैनल भी चला रहे हैं। इनके इंटरनेट संस्करण भी उपलब्ध हैं। ‘यह तो पहले से ही माना जाता था कि मीडिया संस्थान उद्योग की तरह काम करते हैं और उनका भी उद्देश्य लाभ कमाना है। मगर हाल के वर्षों में स्थितियां इस कदर बदल गई हैं कि कहा जाने लगा है कि लाभ कमाना उनका एक मात्र उद्देश्य रह गया है। ’(कुमार,2015)

ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड में अब मुद्दे नहीं रह गए हैं। लेकिन मीडिय उन्हें उठाने की बजाए ऐसी पत्रकारिता हो रही है कि सत्ता प्रतिष्ठान नाराज न हो जाए।  ‘उत्तराखंड में मुद्दों की कमी नहीं है।  पहाड़ का खाका बदल रहा है। पहाड़ों की खरीद-फरोख्त हो रही है। संसाधनों का अति दोहन हो रहा है। उनका विनाश हो रहा है। सांस्कृतिक क्षय हो रहा है। नागरिक जीवन सुधारे जाने की जरुरत है। शराब, ठेकेदारी जैसी आर्थिक- सामाजिक कुरीतियां फन उठाए हुए हैं। इन तमाम मुद्दों का आवाज देने की जरूरत है।’  (सिंह, 2007)

लेकिन  मीडिया इन सभी पर खामोश है। यहां के पहली कतार के अमर उजाला और दैनिक जागरण, दैनिक हिंदुस्तान के  पन्ने टटोलने पर शायद ही कोई जनसरोकार की खबर मिले। ‘अमर उजाला और दैनिक जागरण ने उत्तराखंड आंदोलन को भी अपना सर्कुलेशन बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया। वहां अब मुद्दों को जनता पहले उठाती है और  ये समाचार पत्र जनता से उन मुद्दों को ही लेते हैं जिनसे उनका लाभ हो। वे उन मुद्दों को उठाते से बचते हैं जिससे सरकार व प्रशासन के नाराज होने की आशंका रहती है। अखबार देखते हैं कि कहां भीड़ है, कहां सर्कुलेशन बढ़ेगा, उन मुद्दों को ही उठाते हैं। वहां अब मुद्दों को जनता पहले उठाती है और  ये समाचार पत्र जनता से उन मुद्दों को ही लेते हैं जिनसे उनका लाभ हो। वे उन मुद्दों को उठाते से बचते हैं जिससे सरकार व प्रशासन के नाराज होने की आशंका रहती है। अखबार देखते हैं कि कहां भीड़ है, कहां सर्कुलेशन बढ़ेगा, उन मुद्दों को ही उठाते हैं। (लखेड़ा 2020)

अमर उजाला और दैनिक जागरण ने उत्तराखंड समाचारों के हिसाब से गढ़वाल और कुमायुं में बांटा हुआ है। एक मंडल की खबरें एक-दूसरे क्षेत्र में नहीं भेजी जाती हैं। यह बात 1994 के उत्तराखंड आंदोलन के समय से पकड़ में आई और अब तो एक जिले की खबरे दूसरे जिले में नहीं देते हैं। बड़े कहे जाने वाले समाचार पत्रों के लगभग हर जिले के लिए अलग संस्करण हैं। इनकी कम कीमत है।  रंगीन पेज हैं और  भैस चोरी हो जाने से लेकर चटपटी खबरे हैं। इनमें  राजनीति, अपराध आदि की चटपटी खबरें हैं।  इससे पाठक भी खुश है। अपना नाम देकर खुश हो जाता है। इसका नतीजा यह हुआ कि जनसरोकार वाले छोटे अखबार लगभग खत्म हो गए हैं।

उत्तराखंड राज्य बनने के बाद लोगों का आशा थी कि गढ़वाली एवं कुमायुंनी भाषाओं की पत्रिकाओं का भी सरकारी मदद मिलेगी, लेकिन अब तो प्रदेश के हिंदी के ही युगवाणी, नैनीताल समाचार जैसे जनसरोकारों से जुड़े अखबार भी संकट में हैं। ऐसे में स्थानीय भाषाओं के लघु समाचार पत्रों की स्थिति को लेकर आकलन लगाया जा सकता है। यहां गढ़वाली एवं कुमायुंनी भाषाओं की पत्रकारिता का  अपना अलग महत्व रहा है। ‘अचल’ (मासिक) को कुमायुंनी के साथ ही प्रदेश की लोकभाषाओं की पहली पत्रिका कहा जाता है, हालांकि 1922 में प्रकाशित कुमायुं कुमुद में कुमायुंनी रचनाएं प्रकाशित होने लगी थीं। इसी तरह 1946 में प्रकाशित फ्योंली को गढ़वाली की पहली पत्रिका तथा 1987 में प्रकाशित गढ़ ऐना को गढ़वाली को पहला दैनिक समाचार पत्र माना जाता है। देहरादून से 1954 में नेपाली अखबार गोरखा संसार भी  शुरु हुआ था। आज  ‘धाद’ और ‘चिठ्ठी पत्री’ पत्रिकाएं भी गढ़वाली में निकल रही हैं।

गुमानी पंत 1790 से 1815 तक क्रूर शासक गोरखों के खिलाफ कुमायुंनी और हिंदी की खड़ी बोली में कलम चलाकर एक तरह से पत्रकारिता का श्रीगणेश कर चुके थे।  यह भारतेंदु हरिश्चंद्र से पहले की बात है।  तब क्रूर गोरखा शासन के खिलाफ उनकी कविताएं दीवारों पर लिख दी जाती थी। दुनिया के पहले अखबार कहे जाने वाले  ‘ एक्टा डयूरना’ भी तो पत्थर या धातु की पट्टी होता था जिस पर समाचार अंकित होते थे। ( लखेड़ा 2020)

इसी तरह बहुत कम लोग जानते होंगे कि मोहन दास कर्मचंद गांधी को महात्मा की उपाधि उत्तराखंड में ही मिली थी। ‘मोहन दास कर्मचंद गांधी जब पहली बार हरिद्वार पहुंचे तो स्वामी श्रद्धानंद ने गुरुकुल कांगड़ी पहुंचने पर उन्हें ‘महात्मा’  के नाम से पुकारा और उसके बाद गांधी जी महात्मा ही कहलाने लगे। इसी तरह खान अब्दुल गफ्फार खान को सरहदी गांधी की उपाधि देने वाला और कोई नहीं बल्कि देहरादून से फ्रंटियर मेल अखबार निकालने वाले क्रांतिकारी पत्रकार अमीर चंद बम्बवाल ही थे। ’(रावत , 2015)

बहरहाल, अब हम सभी का कर्तव्य है कि उत्तराखंड की इस महान विरासत वाली पत्रकारिता को  बचाने के प्रयास किए जाने चाहिए। इसके लिए लोगों को जागरुक करना होगा, ताकि वे सरकार, प्रशासन, पुलिस, नेता, अफसरों पर दबाव बना सकें कि पीत पत्रकारिता करने वालों को देवभूमि उत्तराखंड से बाहर का रास्ता दिखाए।

 

  संदर्भ सूची

किताबें    

  • कुमार, डा. मुकेश. ( 2015). टीआरपी, टीवी न्यूज और बाजार. दिल्ली: वाणी प्रकाशन.
  • रावत, जयसिंह. (2015). स्वाधीनता आंदोलन में उत्तराखंड की पत्रकारिता, देहरादून: विनसर पब्लिशिंग कंपनी.
  • लखेड़ा, हरीश. (2020). पत्रकारिता का स्थानीयकरण. दिल्ली: किताबवाले.
  • सिंह, गोविन्द. उत्तराखंड में पत्रकारिता. संपादक, पोखरिया, प्रो. देवसिंह. (2007). उत्तराखंड के रचनाकार और उनकी रचना. अल्मोड़ा: कुमायुं विश्व विद्यालय प्रकाशन.

वेबसाइट्स

आरएनआई, (2017-18).  Office of Registrar of Newspapers for India. Retrieved  on  April 4, 2020  from http://www.rni.nic.in

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डॉ. हरीश चंद्र लखेड़ा

 

जन्म : गांव-कलीगाड तल्ला, तहसील लैंसडौन, पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड।
माताजी- श्रीमती सुरेशी देवी लखेड़ा, पिताजी- हेडमास्टर श्री सीताराम लखेड़ा
शिक्षा: पीएच.डी. (पत्रकारिता व जनसंचार), उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय हल्द्वानी, उत्तराखंड।
एम. ए. (पत्रकारिता व जनसंचार), उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय हल्द्वानी, उत्तराखंड।
एम.एससी. (गणित), डीबीएस कॉलेज देहरादून, हे.न.ब. गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर, उत्तराखंड।
पी.जी. डिप्लोमा (पत्रकारिता व जनसंचार), भारतीय विद्याभवन, नयी दिल्ली।

कृतियां:
1-दिल्ली का रास्ता (2000, कविता संग्रह), सौजन्य- दिल्ली हिंदी अकादमी।
2-उत्तराखंड आंदोलन- स्मृतियों का हिमालय (2017, उत्तराखंड राज्य आंदोलन का इतिहास)
3- लखेड़ा वंश- सागर से शिखर (2018, उत्तराखंड के लखेड़ा ब्राह्मणों पर शोध ग्रंथ)
4- पत्रकारिता का स्थानीयकरण (2020, शोध कार्य पर आधारित)
5- नदियों के गीत ( यह कविता संग्रह), सौजन्य- दिल्ली हिंदी अकादमी ।
6- राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में कई शोध पत्र प्रकाशित।
पत्रकारिता:
दिल्ली में पत्रकारिता में लगभग 3 दशक से सक्रिय डॉ. हरीश चंद्र लखेड़ा पत्रकारिता में हरीश लखेड़ा के नाम से जाने जाते हैं। जनवरी 1992 में जनसत्ता से पत्रकारिता शुरू की। राष्ट्रीय सहारा में दिल्ली टीम के चीफ रिपोर्टर और फिर अमर उजाला के नेशनल ब्यूरो में सीनियर स्पेशल करस्पोंडेंट (समकक्ष एसोशिएट एडीटर) रहने के बाद चंडीगढ़ में ब्यूरो चीफ रहे। अब हिंदी दैनिक ट्रिब्यून के दिल्ली ब्यूरो में कार्यरत। डा. लखेड़ा भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) से मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं। वे उन गिने-चुने पत्रकारों में शामिल हैं जिनको दिल्ली नगर निगम से लेकर दिल्ली, पंजाब और हरियाणा की विधानसभाओं और संसद के दोनों सदनों की रिपोर्टिंग  का अनुभव है। उन्होंने कांग्रेस, भाजपा, वामदल, आम आदमी पार्टी (आप) से लेकर तीसरा मोर्चा से जुड़े सभी राष्ट्रीय दलों की रिपोर्टिंग भी की है। राष्ट्रपति से लेकर केंद्र सरकार के लगभग सभी मंत्रालयों की कवरेज कर चुके हैं। रिपोर्टिंग के लिए देश के अधिकतर राज्यों का भ्रमण कर चुके डॉ. लखेड़ा राष्ट्रपति के साथ भी कई दौरों पर जा चुके हैं। वे रिपोर्टिंग के लिए विदेश भी जा चुके हैं। उत्तराखंड राज्य आंदोलन में भी उन्होंने सक्रिय तौर पर भाग लिया।

(sabhar– facebook page of Harish  C Lakhera)
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