जीवट के धनी हैं उत्तराखंड के खसिया – गोविन्द सिंह

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जीवट के धनी हैं उत्तराखंड के खसिया
– प्रोफेसर (डॉ ) गोविन्द सिंह
उत्तराखंड के खसिया यानी ठाकुर, मतलब क्षत्रिय जातियों का समूह। हालांकि इसमें यहां की अनेक ब्राह्मण जातियां भी शामिल रही हैं, लेकिन अब यह संबोधन यहां के ठाकुरों के लिए रूढ़ हो गया है। बाहर से आकर यहां बसे ब्राह्मण इस संबोधन का इस्तेमाल उन्हें नीचा दिखाने के लिए करते हैं, लेकिन एक जमाना था जब इस भू-भाग पर खसों का शासन था। महाभारत काल से लेकर 1000 ईस्वी के आसपास तक पूरे हिमालय क्षेत्र में इनका राज था। आज यह उत्तराखंड का सबसे बड़ी आबादी वाला जाति समूह है।
यहां की ज्यादातर जातियों के बारे में यह भ्रम है कि वे बाहर से आकर बसी हैं। इसमें कुछ सचाई जरूर है लेकिन खस जातियों के संबंध में यह पूरी तरह सच नहीं है। हाल के अनुसंधानों से साबित होता है कि वास्तव में ये हजारों वर्षों से यहीं हैं। वैसे इस पर भी विवाद है कि खस आर्यों से भिन्न थे या उनकी ही कोई शाखा। वे मध्य एशिया के पहाड़ी इलाकों से आए थे, इसलिए अत्यंत मेहनती थे। उन्होंने हिमालय की तलहटियों को पाट कर खेती-योग्य बनाया और कठिन परिस्थितियों में रहने का नया फलसफा दिया। वे कबीलाई जिंदगी जीते थे, इसलिए लड़ना-भिड़ना उनके रक्त में था।

मार्शल कौम
अंग्रेजों ने खसिया जाति को मार्शल कौम माना। चंपावत जिले में देवीधूरा के बाराही देवी मंदिर प्रांगण में रक्षाबंधन पर लगने वाला बग्वाल मेला खसों की युद्ध परंपरा की गवाही देता है। इसमें रणबांकुरों के दो दल पत्थरों से एक दूसरे पर प्रहार करते हैं और तब तक लड़ते रहते हैं, जब तक कि एक व्यक्ति के बराबर खून नहीं बह जाता। युद्ध के प्रति इनके जज्बे को देखते हुए ही अंग्रेजों ने इन्हें हर संभव छूट देकर फौज में शामिल किया। कुमाऊं और गढ़वाल के लोगों के लिए उन्होंने अलग-अलग रेजिमेंटें बनवाईं। पहले विश्वयुद्ध में बड़ी संख्या में यहां के लोगों ने शहादत दी। गबर सिंह को विक्टोरिया क्रॉस मिला।

लगभग हर रेजिमेंट में वे भर्ती होते थे। दूसरे विश्व युद्ध में भी वे लड़े। आजाद हिंद फौज में भी बड़ी संख्या में शिरकत की। यही नहीं, चंद्र सिंह गढ़वाली जैसे सेनानी के नेतृत्व में पेशावर की बगावत में भी आगे रहे। देश में उत्तराखंड ही ऐसा प्रांत है, जो अपनी आबादी के अनुपात में देश को सबसे ज्यादा फौजी जवान और अफसर दे रहा है। वहां लड़कों के मन में बचपन से ही सेना में जाने के संस्कार भर दिए जाते हैं। जो लोग फौज से बीच में ही नाम कटवाकर घर लौट आते हैं, उन्हें कभी अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता। इसलिए हर पहाड़ी लोकगीत में किसी न किसी रूप में फौजी जीवन का जिक्र होता है। बचपन में सुने एक गीत की पंक्तियां याद आती हैं, जिसे सुनकर हम उछल पड़ते थे: ‘गाहिल लड़ाई लगी, भट्टम भट्टम गोली। सिपाई दाज्यू लड़ने ग्यान, छाती खोली-खोली।’

ज्यादातर मार्शल जातियों में स्त्रियों की स्थिति बेहतर होती है क्योंकि पुरुष लंबे समय के लिए बाहर जाते हैं और औरतें घर के मोर्चे पर डटी रहती हैं। उत्तराखंड में भी स्त्रियों की स्थिति बेहतर रही है। उन्हें शहरी समाजों की तरह केवल घर की शोभा बनाकर नहीं रखा गया है। घर की अर्थव्यवस्था में उनकी भूमिका पुरुषों से किसी भी मायने में कम नहीं है। शादी-ब्याह की व्यवस्था भी अपेक्षाकृत ज्यादा लचीली रही है। दहेज प्रथा अब जाकर शहरी प्रभाव से शुरू हो गई है, वरना एक ज़माना था जब कन्या के पिता को बारात के स्वागत के लिए कुछ रकम दी जाती थी।

खसियों में आज भी लड़की खोजने के लिए लड़के का पिता लड़की वालों के घर जाता है। कई बार बारात में वर का जाना भी जरूरी नहीं होता। वर पक्ष के चार-छह लोग जाकर बधू को डोली में बिठा कर ले आते हैं। बाद में सुविधा से फेरे ले लिए जाते हैं। यौन रिश्ते भी इतने रूढ़ नहीं थे, जितने शहरी समाजों में होते हैं। उन्हें संगीन जुर्म नहीं समझा जाता था। कुछ समाजों में यह भी व्यवस्था थी कि यदि कोई विवाहिता स्त्री किसी अन्य पुरुष का वरण करती है तो उसे समाज यह छूट दे देता था। हां, जिस पुरुष के साथ वह जा रही है, उसे पूर्व पति को उसका मूल्य चुकाना होता था। ऐसी स्त्री को ‘छन मण की बान’ कहा जाता था- अर्थात ऐसी सुंदरी, जिसका पति मौजूद है। उस स्त्री को प्राप्त करना गर्व की बात समझी जाती थी।

राजनीति में नहीं
उत्तराखंड के खसिया हाल-हाल तक पौरोहित्य कर्मकांड से काफी हद तक बचे हुए थे। आज भी बहुत से मंदिरों में खसिया ही पुजारी होता है। कई पूजा कर्म निचले वर्ग के लोग भी किया करते थे। छुआछूत जरूर मौजूद थी, लेकिन जातियों के आपसी रिश्ते सौहार्दपूर्ण थे। वे एक-दूसरे पर निर्भर थे। यानी ब्राह्मणवाद का असर कम था। लेकिन अभी यह असर लगातार बढ़ता जा रहा है। जातिवाद भी बढ़ रहा है। यह समाज मुख्यधारा में आ चुका है, लेकिन अपनी अच्छी बातें छोड़ कर मुख्यधारा की बुराइयों को ग्रहण कर रहा है। राजनीति में खसियाओं को उनका जायज हक मिलना अभी बाकी है
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– प्रोफेसर (डॉ ) गोविन्द सिंह