परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा
हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली
देहरादून में कठमाली उन लोगों को कहा जाता है, जिनके पुरखे गढ़वाली थे और कई दशकों पहले वे देहरादून बस गए थे। यह भी कह सकते हैं कि उन्हें देहरादून में बसे सौ से ढाई सौ साल हो चुके हैं। देहरादून कुलिंद, कार्तिकेयपुर व कत्यूरी से लेकर पंवार नरेशें के समय तक हमेशा सही गढ़ नरेशों के अधीन रहा है। बीच-बीच में मुगल या उनके अधीन मुसलिम लुटेरे यहां कब्जा करते रहे। इसलिए यहां गढ़वाल के लोग सदियों से बसते रहे। इन कठमाली लोगों के सरनेम तो गढ़वालियां के जैसे ही हैं, जैसे कि रावत, नेगी, बिष्ट, घिल्डियाल, नौटियाल, कुकरेती आदि हैं। परंतु उनके रीति-रिवाज, संस्कृति, रीति-रिवाज, खानपान से लेकर बोली-भाषा में से कुछ भी गढ़वाली नहीं रह गया है। हालांकि अब वे फिर से गढ़वाली समाज में घुल मिलने लगे हैं। तो मैं यही कह रहा था कि कस्बों, शहरों व महानगरों में बस चुके गढ़वाली-कुमायुंनी भी अब कठमाली बनने की ओर अग्रसर हैं।
आप लोगों को प्रसिद्ध गायक नरेन्द्र सिंह नेगी जी के एक गीत की याद दिला दे रहा हूं, जिसके बोल हैं — मुझको पहाड़ी-पहाड़ी मत बोलो, मैं देहरादूनवाला हूं। जी हां, कठमाली बनने की ओर अग्रसर उत्तराखंड के लोग अब गढ़वाली या कुमायुंनी से ज्यादा, दिल्लीवाले, मुंबईवाले, लखनऊवाले, चंडीगढ़ वाले, देहरादून वाले, श्रीनगरवाले, कोटद्वार वाले, हल्दवानी वाले, नैनीताल वाले आदि होते जा रहे हैं। गांवों को छोड़कर आसपास के कस्बों या महानगरों में बसने की होड़ चल रही है। देश –दुनिया के अन्य शहरों की बात तो दूर अब उत्तराखंड के कस्बों, शहरों में बस चुके लोगों में अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज, खानपान से लेकर बोली-भाषा को छोड़ने की पहाड़ में मची है। अब न कोई ब्वेई ईजा कह रहा है, न काकी,बोडी, न मामा-मामी। अब रिश्तों में भी सभी अंकल-आंटी हो गए हैं।
इस मामले में जनसत्ता समाचार पत्र में मेरे सीनियर रहे वरिष्ठ पत्रकार व हिंदी के प्रसिद्ध कवि दिवंगत मंगलेश डबराल जी के एक लेख का उल्लेख कर रहा हूं। जो उन्होंने २०१५ में लिखा था। इस लेख में डबराल जी कहते हैं कि —– जब भी पहाड़ की और रुख करता हूं, मुझे लेखक विनोद कुमार शुक्ल की छत्तीसगढ़ के बारे में एक कविता-पंक्ति याद आती है: ‘पृथक राज्य अइल, पण छत्तीसगढ़ गेल।’ उत्तराखंड भी 14 साल पहले अलग राज्य बनने के साथ ही चला गया था। सन 2000 में इस पर्वतीय राज्य के बनते ही विस्थापन, पलायन और प्रवास को पंख लग गए, गांव खाली होकर ऋषिकेश, देहरादून, श्रीनगर, हरिद्वार जैसे शहरों की तरफ बढ़े और दोनों गढ़वालों-टिहरी और पौड़ी-के नागरिकों का ‘मैदानीकरण’ तेज हुआ। उत्तराखंड के कुमायूं क्षेत्र में यह प्रक्रिया उतनी विकराल नहीं हुई क्योंकि वहां नगरीकृत जगहें अपेक्षाकृत ज्यादा हैं- नैनीताल, अल्मोड़ा, रानीखेत, भवाली, रामनगर, रुद्रपुर, काशीपुर, हल्द्वानी आदि में प्रवासियों को थामने की क्षमता कुछ बची हुई है। मेरे कुछ परिचितों ने जब हाल ही में गढ़वाल जाकर ज़मीनें खरीदीं तो एक बार फिर याद आया कि यह कैसी विचित्र और दोहरी विडम्बना है कि पहाड़ के लोग मैदानी हो रहे हैं और मैदानों के लोग प्रकृति, कम प्रदूषण, सुरक्षा और एकांत की तलाश में पहाड़ की ओर मुखातिब हैं। वहां अपने नीड़ और कुटीर बना रहे हैं। गढ़वाल के शहर इन दिनों फूले हुए और गुलज़ार दिखते हैं जबकि गांव सिमटे हुए और अंधेरे के गहराते घेरे बन गए हैं। उत्तराखंड के नए परिसीमन के आकड़े बताते हैं की गांवों कि आबादी किस क़दर घटी है। वहां बूढ़े-अधेड़ों, औरतों और उन बच्चों के अलावा, जिनकी उम्र अभी मैदान जाने लायक नहीं हुई है, कोई नहीं बचा है। खेती करना लोग लगभग छोड़ चुके हैं और खेतों में पेड़ उग रहे हैं, जिनकी जड़ें मिट्टी में नीचे तक चली गई हैं और जिन्हें उखाड़कर खेती के लायक बनाना बहुत मेहनत और खर्च का काम होगा।इस भयानक किस्म के ‘वनीकरण’ से रीछ-भालू, मूस-साही, बन्दर-लंगूर इतनी बड़ी तादाद में पैदा हो गए हैं कि कोई फसल उगाता भी है तो उसे जानवर पकने से पहले ही तहस-नहस कर डालते हैं। यह एक ऐसी परिस्थिति है जो गढ़वाल की समूची पारिस्थितिकी को बदल देगी और वह मनुष्य नहीं, बल्कि सिर्फ पर्यावरण के काम की रह जाएगी। चूल्हों का जलना और धुएं का उठना पहाड़ के मिट्टी-पत्थर के मकानों को मजबूती देता है। वास्तव में यह एक प्राचीन सभ्यता का समाप्त होना, उसके स्वरों का रुंधना, धीरे-धीरे उसका अवशेष में बदलना जैसा है। शायद मेरी और मेरे जैसे बहुत से लोगों की वह ‘गढ़वाली’ पहचान अब मेरे घर के खंडहर की तरह है जहां हम कभी देखने या भूला-बिसरा कुछ याद करने जा सकते हैं, लेकिन लौट नहीं सकते। कहीं जाना वहां लौटना नहीं होता।
मंगलेश डबराल जी आज हमारे बीच नहीं हैं, परंतु उनके शब्द आज भी कटु सत्य को बयां कर रहे हैं। आज पूरा उत्तराखंडी समाज बदलता जा रहा है। पहाड़ में अपनी संस्कृति और बोली भाषा को छोड़ने की होड़ मची हुई है। लोग यह सोच ही नहीं रहे हैं कि जिस संस्कृति को बनने में सदियां लगी, वह संस्कृति और परंपराएं अब प्रचलन से बाहर हो रही है।
इसी तरह गढ़वाली-कुमायुंनी अकादमी बनाकर क्या करोग,, जब घरों में गढ़वाली-कुमायुंनी बोल ही नहीं रहे हैं ।उत्तराखंड के गांवों को छोड़कर शहरों-कस्बों में बसे लोग अपनी ही संस्कृति को छोटा मानकर उसे छोड़ रहे हैं। अपनी बोली-भाषा को बोलने में हीनभावना से ग्रसित हो रहे हैं। कभी पंजाबी, बंगाली को देखा, दक्षिर भारत के लोगों को देखा। अपन भाषा में किस तरह से बातें करते हैं। परंतु हम अपनी संस्कृति को छोड़कर दूसरों की संस्कृति को गले लगाकर इस महास सभ्यता को नष्ट करने में लगे हैं। कस्बों, शहरों व महानगरों में बसे हम लोग अब ‘गढ़वालीपन या कुमायुंनीपन खोने को तैयार हैं। क्यों कि अब हम ‘देसवाले’ जो बनने लगे हैं। यह तो ‘कठमाली’ मनने की प्रक्रया की शुरुआत है। भावी पीढ़ियों के लिए हम क्या छोड़ने जा रहे हैं। कभी सोचा आपने?
अंत में पहाड़ की महिलाओं से भी एक प्रश्न है। महानगरों के कौथिगों, शादी ब्याह में पहाड़ी नथ व अन्य आभूषण पहन कर नाचना तो अच्छा है, परंतु अपने बच्चों से गढ़वाल-कुमायुंनी तो बोलिए। मां की गोदी में बच्चे जो कुछ सीख लेंगे, उसे जीवनभर याद रखेंगे।
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