भांग की खेती से उत्तराखंड से कैसे समाप्त हुआ गोरख्याली शासन

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परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा । आप जानते ही हैं कि उत्तराखंड में कुछ समय तक नेपाल के गोरखों का भी शासन रहा है। गढ़वाल में 12  साल और कुमायुं में 22 साल तक गोरख्याली/ गोख्याणी रहा है। उत्तराखंड से गोरखा शासन खत्म करने तथा अंग्रेजों के आने की दिलचस्प कहानी है। गोरखों का फौजी शासन था, इसलिए क्रूर व अन्यायपूर्ण था। इससे उत्तराखंड के लोग बहुत परेशान थे। बाद में अंग्रेज- नेपाल युद्ध में गोरखों की हार के बाद उन्हें  काली नदी के पार चले जाना पड़ा था। परंतु, गोरखों को उत्तराखंड से बाहर करना इतना आसान कार्य भी नहीं था। इसके लिए अंग्रेजों ने भी कम पापड़ नहीं बेले थे। ईस्ट इंडिया कंपनी यहां की रियासतों को अपने अधिकार में लेने के लिए  बहुत सैयारी करती थी। उत्तराखंड में भी  ऐसा ही हुआ।

अंग्रेजों ने उत्तराखंड में  पहले तो वहां अपना कारोबार शुरू किया। चीड़ के पेड़ों से लीसा निकालने का कारोबार कर वहां अपने पांव पसारे और उसके बाद उन्होंने वहां भांग की खेती की। भांग की खेती से उन्होंने वहां अपना ऐसा नेटवर्क फैला दिया था जो गोरख्याली को समाप्त करने में करागर साबित हुआ।  गढ़वाल,  कुमायुं व नेपाल के आज के डोटी क्षेत्र में अंग्रेजों ने भांग के कारोबार से अपने जासूसों का बहुत बड्रा तंत्र फैला दिया था। जासूसों का यही तंत्र लगातार सूचना भेजता रहता था । इस जासूसों ने ही बताया था कि यदि अंग्रेजों ने गोरखों पर हमला किया तो उत्तराखंड की जनता विद्रोह के लिए तैयार है । इसके बाद अंग्रेज अपनी तैयारी में लग गए थे। आप सभी जानते कि भारत में  1857  के प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन तक ब्रिटिश सरकार को कंपनी सरकार कहा जाता था। उसके बाद भारत का शासन सीधे ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण में आ गया था। अंग्रेज यहां के रजवाड़ों  को अपने शासन में मिलाने से पहले अपनी कूटनीतिक चालें चलते थे। उस राज्य की उपयोगिता जानने के बाद वहां पर अपने जासूसों का जाल फैलाते थे।

 उत्तराखंड में अंग्रेजों पहले तो सैलानी, धर्म पर्यटक व सर्वेयर के तौर पर गए। इस दौरान वे वहां की भौगोलिक हालात की जानकारी लेते रहे। 1803  में संपूर्ण उत्तराखंड गोरखों के शासन में आ गया था। इसके चार साल बाद 1808  में कंपनी सरकार ने नेपाल सरकार से अनुमति लेकर कैप्टन रेपर को लेफ्टिनेंट वेब और कैप्टन हेयरसे के साथ गढ़वाल भेजा था। रेपर ने गढ़वाल जाने का उद्देश्य गंगा जी के उदगम स्रोत का पता लगाना बताए गया था।  परंतु  उसका मख्य उद्देश्य  इस इलाके की भौगोलिक स्थिति को जानने का था। वह हरिद्वार से भागीरथी के किनारे-किनारे भटवाड़ी तक गया और इसके बाद वह अलकनंदा की तरफ जा कर श्रीनगर पहुंच गया। इसी तरह सन 1812 में मूरक्राफ्ट,  कैप्टन हेयर  के साथ वह कुमायुं और गढ़वाल होकर तिब्बत पहुंच गया था। वह मानसरोवर भी गया। वह साधु के भेष में वहां गया था।  इस तरह से अंग्रेज अफसर  लगातार उत्तराखंड की स्थिति को समझ रहे थे  और सूचनाएं एकित्रत कर रहे थे और अपने गुप्तचरों का जाल फैला रहे थे ।

अंग्रेजों ने उत्तराखंड में पांव पसारने की शुरुआत चीड़ के पेड़ों से की। तत्कालीन गवर्नर जनरल ने अपने 10 अप्रैल 1809 के पत्र में नेपाल के राजा को सूचित किया कि कुमायुं और डोटी के चीड़ के पेड़ों से बड़ी मात्रा में लीसा निकाला जा सकता है । इससे नेपाल सरकार और कंपनी सरकार, दोनों को लाभ पहुंचेगा। इस तरह कंपनी सरकार का उत्तराखंड में प्रवेश शुरु हो गया था। इस लीसे से निकला तारपेन ब्रिटेन में निर्मित तारपीन की अपेक्षा अधिक पतला, गर्वित, पारदर्शी और सुगंधित था। अंग्रेजों  ने  कुमायुं व गढ़वाल के पठारी भागों के निवासियों को अग्रिम धनराशि देकर भांग के उत्पादन के लिए प्रोत्साहित किया। भांग के वस्त्र, भंगेला,  भांग के बीज और चरस का व्यापार उन दिनों बहुत लाभदायक था। इसलिए उत्तराखंड के बड़ी संख्या में किसानों ने भांग को पैदा करना शुरू कर दिया था। गोरखों के भारी करों को चुकाने के लिए भी इससे पैसा मिल जाता था। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ शिव प्रसाद चारण डबराल चारण अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि इस कारोबार से उत्तराखंड के  अनेक व्यक्तियों की निष्ठा कंपनी सरकार के प्रति हो गई थी ।

रुथरफोर्ट ने रुपयों का जला बिछाकर शीघ्र ही गढ़वाल, कुमायुं और डोटी के अनेक लोगों को अंग्रेजों के पक्ष में खड्रा कर दिया था।  भांग और बिजोरा के साथ ही लोहा, तांबा और चांदी की खानों के मालिक, सोना चांदी बेचने वाले, मठ- मंदिरों के महंतों से लेकर गोरखालियों की जागीर उपयोग करने वाले तथा राजस्व विभाग के सर्वोच्च अधिकारी  भी अंग्रेजों से मिल गए थे। रुथरफोर्ट ने गवर्नर जनरल को सूचित किया था कि डोटी  के 36 तथा कुमायुं के 18 से अधिक प्रतिष्ठित व्यक्ति मेरे संकेत पर गोरखाली राज्य के गुप्त रहस्यों को बताने को तत्पर रहेंगे । रुथरफोर्ट ने  दूसरा पत्र भी गवर्नर जनरल को लिखा इसमें उसने गढ़वाल के कई प्रतिष्ठत लोगों के नाम देकर कहा कि लगभग 65 हमारे साथ देना को तैयार बैठे हैं। गोरखाली  सरदार इस बात का पता नहीं लगा सके। बाद में गोरखों को कुछ भनक लगी तो उन्होंने लोगों को चेतावनी देनी शुरू कर दी और भांग का व्यापार अपनी सीमा के बाहर करने  पर रोक लगा दी। परंतु खुद कई गोरखा सरदार भी भांग की खेती में शामिल थे, क्योंकि इससे उनको भी मुनाफा होता था। अंग्रेजों व नेपाल के बीच लगातर संबंध बिगड़ रहे थे।  नेपाल सरकार ने 1814 के आरंभ में डोटी, कुमायुं और गढ़वाल के आमिलों को देश दिया कि वे इन प्रांतों के किसी भी व्यक्ति को राज्य की सीमा से बाहर कंपनी के राज्य में न जाने  दे दें। परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी। कंपनी सरकार ने पैसा देकर भी बहुत से चालाक, चतुर लोगों को अपने पाले में कर लिया था। इसे पंचमंगिया के माध्यम से खेचल कहा जाता है।  इस तरह गोरखा शासन में भांग-सन खरीदने के बहाने अंग्रेज उनके राज्य में घुसते रहे। अंग्रेजों ने शीघ्र ही गोरखों के शासन में भांग बोने यानी उनके विनाश की स्थित पैदा करदी।

रुथरफोर्ट के दो चपरासियों ने गढ़वाल से सूचना दी थी कि गोरखा सरकार गढ़वाल में भांग के व्यापार पर नये आदेश के अनुसार किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं लगा सकते थे। कंपनी सरकार को गुप्त सूचना देने वाले व्यक्तियों पर भी गोरखाली नियंत्रण नहीं लगा सके। उन दिनों शिक्षित गढ़वालियों ने गोरखों के विरुद्ध कंपनी सरकार को सहायता देने में सक्रिय भाग लिया था। इस तरह  अंग्रेज चब उत्तराखंड में पूरी तरह से अपना जाल फैला चुके थे तो उन्होंने नेपाल के विरुद्ध युद्ध  की तैयारी शुरू कर दी। जैसे ही कंपनी सरकार का गोरखों की दासता से गढ़वाल को मुक्त करने की घोषणा का समाचार पहुंचा, तो जनता में प्रसन्नता की लहर फैल गई थी । जैसे ही अंग्रेजी सेना देहरादून पहुंची थी तो गढ़वाल में खासतौर पर सलाण क्षेत्र के लोगों ने भी गोरखा शासन को उफाड़ फेंकने की कमर कस ली थी। जब अंग्रेजी सेना वहां पहुंची थी लोगों ने उनका भरपूर स्वागत किया था। इस तरह संपूर्ण  उत्तराखंड में भांग की खेती से अंग्रेजों ने  गोरखाली सत्ता को उखाड़ फेंकने में सफलता पाई थी। इस तरह १८१५ में उत्तराखंड गोरख्याली / गोरख्याणी से मुक्त हो गया।

यह था गोख्याणी./ गोरख्याली तथा  भांग की खेती व अंग्रेजों की गाथा। यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब  करके नोटिफिकेशन की घंटी भी अवश्य दबा दीजिए, ताकि आपको नये वीडियो आने की जानकारी मिल जाए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, धरोहर, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं।  अपने सुझाव ई मेल कर सकते हैं। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है। हमारे सहयोगी चैनल – संपादकीय न्यूज—को भी देखते रहना। अगली वीडियो की प्रतीक्षा कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।

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