एक बकरा, जो था गढ़वाल राइफल्स का ‘जनरल’ !

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  परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

 हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा इस बार अफगानिस्तान के एक जंगली बकरे की दास्तां सुनाने जा रहा हूं, जिसे  गढ़वाल राइफल्स में जनरल कहा गया। मेरे आगे बढ़ने तक आपसे अनुरोध है कि इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब  करके नोटिफिकेशन की घंटी भी अवश्य दबा दीजिए, ताकि आपको नये वीडियो आने की जानकारी मिल जाए। वीडियो अच्छी लगे तो शेयर भी अवश्य कीजिएगा। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, धरोहर, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं।  अपने सुझाव ई मेल कर सकते हैं।

यह एक जंगली बकरे की कहानी है जो भारतीय सेना की गढ़वाल राइफल्स (A Goat & The Garhwal Rifles ) के जवानों के लिए  देवदूत बन कर आया। यह घटना 1944 की है। तब अंग्रेजों ने अफगानिस्तान में एक विद्रोह को दबाने के लिए सेना भेजी थी। इस में गढ़वाल लाइफल्स की एक टुकड़ भी थी।  वैसे तो अंग्रेजों और  अफगानों के बीच तीन  युद्ध लड़े गए।  ये युद्ध 1838 से1842 ई, 1878 से 1880 ई तथा 1919 ई में लड़े गए। अफ़ग़ानिस्तान को रूस के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने तथा उसे ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने के उद्देश्य से अंग्रेज़ों ने तीन बार हमले किए। परंतु यह घटना  में एक विद्रोह को दबाने के लिए अफगानिस्तनान गई सेना से संबंधित है। कहा जाता है कि इस विद्रोह को दबाने में ब्रिटिश सेना के 1700 सैनिक मारे गए थे। इसके बाद गढ़वाल राइफल्स की एक टुकड़ी को अफगानिस्तान भेजा गया था। युद्ध के दौरान यह टुकड़ी तत्कालीन अखंड भारत के चित्राल क्षेत्र में रास्ता भटक गई।आज यह चित्राल क्षेत्र एक ज़िला है जो कि पाकिस्तान के ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा प्रान्त का सबसे उत्तर का ज़िला है। इसके पश्चिम और उत्तर में अफ़ग़ानिस्तान है। गढ़वाल राइफल्स के  जवान कई दिनों तक भूख-प्यास से लड़ते रहे। एक दिन जवानों  सामने की झाड़ियों में कुछ हलचल महसूस की।  जवान सतर्क हो गए। तभी झाड़ी से लंबी दाढ़ी वाला एक बड़ा सा बकरा निकल आया। भूख- प्यास से बेहाल जवानों ने सोचा कि इस बकरे को मार कर भूख मिटाई जा सकती है। वे उस बकरे को पकड़ने के लिए आगे बढ़ने लगे। बकरा वापस पीछे की ओर भागने लगा। जवान भी उसके पीछे-पीछे  दौड़ने लगे। बकरा एक खुले मैदान में जाकर रुक गया। सिपाही वहां पहुंचे तो देखा कि बकरा अपने खुरों से जमीन खोदने लगा था। जवानों ने  निकट जाकर देखा तो वहां मैदान में आलू निकले।इसके बाद जावनों ने भी उस जमीन खोदना शुरू कर दिया। वहां बड़ी मात्रा में आलू  निकलने लगे। इन आलुओं से जवानों ने अपनी भूख मिटाई थी। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ.रणवीर सिंह चौहान ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक -लैंसडौन: सभ्यता और संस्कृति- ( Lansdowne : Sabhyata aur Sanskriti) में इसका उल्लेख किया है।

गढ़वाल राइफल की एक टुकड़ी ने अपने मददगार बकरे का  ऋण चुकाने के लिए उसे  मानद ‘जनरल’ का दर्जा दिया।   गढ़वाल राइफल्स के  जवान अपनी जान बचाने के लिए खुद को उस बकरे का ऋणी मानते थे। इसलिए उन्होंने उसे एक शुभंकर के रूप में रखने का फैसला किया। युद्ध समाप्त होने पर वे उस बकरे को अपने साथ लैंसडाउन ले आए। गढ़वाल पहुचने पर विजयी जवानों के साथ ही बकरे का भी स्वागत सत्कार हुआ। बकरे को सेना में जनरल की मानक उपाधी देकर सम्मानित किया गया। सैनिकों ने जनरल बकरा को बैजू नाम दिया। जनरल बकरा बैजू को एक अलग बैरक दी गई। वहां उसकी हर सुख- सुविधा का सारा सामान दिया गया। जनरल बैजू को पूरे लैंसडौन  ( Lansdowne)में कही भी आने जाने की पूरी स्वतंत्रता थी। उसके लिए कोई रोक टोक नही थी। बाजार में उसे कोई भी चीज खाने की छूट थी। उसे कोई नहीं रोकता था। दुकानदार उसकी खाए सामान का बिल बनाकर गढ़वाल राइफल्स को  दे देते थे। सेना उसका बिल चुकाती थी।जनरल बैजू बकरा बेझिझक  लैंसडौन में  घूमता था। कही पर नए रंगरूट मिलते तो उसको सैल्यूट भी करते थे। बकरे के निधन पर सेना ने पूरे सम्मान के साथ उसका अंतिम संस्कार कर उसे विदाई दी। लैंसडौन ( Lansdowne) ही गढ़वाल राइफल्स का रेजीमेंटल सेंटर है।  यहां इस रेजीमेंट की स्थापना 1887 में हुई थी।  गढ़वाल रेजीमेंट की स्थापना  ( Lansdowne) सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी के 1878 में अफगान युद्ध के समय दिखाई गई बहादुरी के बाद अंग्रेजों ने की । इससे पहले1815 से 1887 तक गढ़वाली सैनिकों को गोरखा रेजीमेंट में ही भर्ती किया जाता थाा।

यह थी जनरल बैजू बकरे की गाथा। यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। वीडियो अच्छी लगे तो शेयर भी अवश्य कीजिएगा। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है। हमारे सहयोगी चैनल – संपादकीय न्यूज—को भी देखते रहना। अगली वीडियो की प्रतीक्षा कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।

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