कुमायुं के कोट यानी किले

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हिमालय के गढ़ भाग-तीन

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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जै हिमालय, जै भारत। हिमालयीलोग के इस यूट्यूब चैनल में आपका स्वागत है। मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा गढ़वाल के गढ़-गढ़ियों के बाद अब कुमायुं के कोट यानी किलों (kot or fort of Kumaon) को लेकर जानकारी दे रहा हूं।

 जब तक मैं आगे बढूं, तब तक आपसे अनुरोध है कि इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब  करके नोटिफिकेशन की घंटी भी अवश्य दबा दीजिए, ताकि आपको नये वीडियो आने की जानकारी मिल जाए। वीडियो पसंद आए तो शेयर भी अवश्य कीजिएगा। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, धरोहर, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं।  अपने सुझाव ई मेल कर सकते हैं।

गढ़वाल के गढ़-गढ़ियों के बाद अब कुमायुं के कोटों यानी किलों (kot or fort of Kumaon)पर यह वीडियो है। कुमायुं में किलों के लिए कोट शब्द भी बहुत प्रचलित है। कुमायुं में सामान्य तौर पर लगभग दो दर्जन किलों का उल्लेख किया जाता है, परंतु यदि ठीक से अध्ययन किया जाए तो यहां दो सौ से ज्यादा छोटे –बड़े किले हो सकते हैं। अकेले अस्कोट में ही  ८० कोट होने से इस क्षेत्र का नाम अस्सीकोट से अस्कोट पड़ा। गढ़वाल में बड़े किलों को गढ़ और छोटे किलों व सुरक्षा चौकियों को गढ़ियां कहा जाता रहा है। कुमायुं में किलों के लिए  बूंगा और गढ़ी भी कहा जाता रहा है। सामान्यत: बड़े किलों के लिए किला शब्द का प्रयोग होता रहा है।

कुमायुं के कोट-किलों (kot or fort of Kumaon)को लेकर पहाड़ पत्रिका समेत विभिन्न स्रोतों से मिली जानकारी को यहां दे रहा हूं। कोट शब्द का शाब्दिक अर्थ आवरण अथवा बन्द या ढ़का रखने से है। यानी सुरक्षा कवच बना रहना है। यहां तीन प्रकार के कोट का उल्लेख मिलता है। प्रथम- किला या टीला युक्त कोट। दूसरा- ग्रामीण कोट तीसरा- भवनीय कोट।

वास्तव में उत्तराखंड में गढ़वाल हो या कुमायुं, कहीं भी पुराने किलों (kot or fort of Kumaon)की पहचान करने अथवा उनके इतिहास को जानने के लिए सरकारी तौर पर कोई ठोस प्रयास नहीं किए गए। यदि उत्तराखंड के विश्वविद्यालय इस मामले में शोध-अध्ययन कराएं तो इन किलों की संख्या और इनके इतिहास के पन्नों पर जमी धूल हट सकती है। अभी बात कुमायुं के प्रमुख कोट- किलों की करते हैं। कुमायुं के प्रमुख कोट-किले इस तरह हैं।

राजबुंगा किला- यह किला चंपावत जिले में है। चंद वंश के संस्थापक राजा सोमचंद ने इस किले को बनवाया था| इसे चम्पावत गढ़ी या राजबुंगा या राजबुड्डा अर्थात राजा की गढ़ी भी कहा जाता है। यह किला(kot or fort of Kumaon) अण्डाकार आकार का है।

मल्ला महल किला अल्मोड़ा में है। इसका निर्माण  चंद नरेश  कल्याणचंद ने किया था। यह किला अल्मोड़ा नगर के ठीक मध्य में है।  इस किले में वर्तमान में कचहरी जिलाधीश कार्यालय व अन्य कई सरकारी दफ्तर हैं। चंद राजाओं ने कुमायुं का राज-काज यहीं से चलाया। ब्रिटिश शासन में अंग्रेजों ने इसी भवन से कुमायुं कमिश्नरी संचालित की थी। इस किले की  विशेषता यह है कि इस पूरे भवन में लकड़ी और पत्थरों का काम किया गया है।

बाणासुर का किला – यह किला चम्पावत जिले के लोहाघाट से लगभग पांच किमी दूर कर्णकरायत गांव के उत्तरी भाग में है। देवीधुरा मार्ग पर स्थित इस किले को लेकर मान्यता है कि इसका निर्माण बाणासुर नामक दैत्य ने कराया था। स्थानीय लोग इसे मारकोट  का किला भी कहा जाता है|

लालमंडी किला – इसे फोर्ट मोयरा भी कहते हैं।  यह किला अल्मोड़ा के पल्टन बाजार  छावनी के भीतर स्थित है। इसका निर्माण राजा कल्याणचन्द ने 1563 ई. में किया था।

खगमरा कोट किला- यह किला अल्मोड़ा में है।  चंद नरेश भीष्मचन्द ने इस किले का निर्माण कराया था|

सिरमोही किला- यह प्राचीन किला चंपावत जिले के लोहाघाट  के सिरमोही गांव में है।

गोल्ला चौड़ किला – यह किला चम्पावत में है। मान्यता है कि इसे  राजा गोरिल ने बनाया था।

नैथड़ा किला – यह किला अल्मोड़ा के रामनगर गनाई मार्ग मासी के निकट है। इसे गोरखाकालीन किला माना जाता है।

चण्डाल कोट –  यह किला चंपावत जिला मुख्यालय से लगभग 6 किमी ढकमा गांव के पास ऊंची चोटी पर है। इसे चांद, चन्द,चण्डाल कोट कहा जाता है। चण्डाल कोट सामरिक स्थल है।

चिन्तकोट – यह किला चंपावत जिले में लोहावती और गिड़िया नदी के संगम पर है। इस कोट के  चारों ओर गहरी खाईयां हैं। किले की चोटी पर एक सुरंग भी है।

कत्यूर कोट-  यह कोट चंपावत जिले में  है। इस कोट के आस-पास डूंगरा कोट, मूलाकोट, घिंगारू कोट आदि प्रमुख हैं।

बाराकोट – यह चंपावत जिले में बाराकोट यानी बारह कोट यानी किले हैं । इन बाहर कोट में बाराकोट, राजाकोट, रीठाकोट, रामपुर कोट, कीकड़ कोट, ग्वाला कोट, भटकोट, कलकोट, काना कोट आदि शामिल हैं।

करक्यूड़ा बुंगा –यह किला चंपावत जिले में है। यहां संग्राम कार्की के बुंगा यानी कोट का उल्लेख मिलता है।

पिथौरागढ़ किला- गोरखा काल में बाउलकी गढ़ और ब्रिटिश काल में लंदनफोर्ट नाम से यह प्रसिद्ध किला (kot or fort of Kumaon) पिथौरागढ़ शहर के बीच में है। कहा जाता है कि इस किले के संस्थापक कत्यूरी राजा राय पिथौरा थे। उनका वास्तविक नाम प्रीतम देव था। राय पिथौरा ने ही पिथौरागढ़ नगर को बसाया था। अंग्रेज इतिहासकार एटकिंसन ने इस किले को विल्कीगढ़ कहा है। यह भी कहा जाता है कि इस किले का निर्माण यह भी कहा जाता है कि  चंद वंश के पृथ्वी गुसाई ने तथा इसका जीर्णोद्वार 16वीं सदी ई. में पीरू गुसाई ने किया था। बाद में गोरखों ने इसे नया रूप दिया। इस किले में ब्रिटिश काल  से तहसील कार्यालय चल रहा है।

 खड़ीकोट- पिथौरागढ़ में खड़ीकोट (kot or fort of Kumaon)भी है। इसके अवशेष भी नहीं हैं। यहां अब राजकीय बालिका इंटर कालेज है। कहाजाता है कि कभ यहां तिमंजिला किला था, जिसे गढ़ी कहते थे। यह किला कत्यूरी राजा पिथौरा यानी प्रीतम देव ने लगभग 1398 ईस्वी में बनाया था।

भाटकोट- पिथौरागढ़ किले के पूर्वी भाग में भाट कोट था। यहां दो ऊंचे टीले बचे हैं। इसमें मोर्चाबन्दी के लिए पूर्वी व पश्चिमी भाग में खाईयां भी बनाई गई थीं। भाटकोट के पूर्वी भाग में अब जिलाधिकारी आवास है।

उदयपुर कोट- पिथौरागढ़ एंचोली शिलिंग मार्ग से लगभग 5 किमी. की दूर बुंगा गांव के ऊपर उदयपुर कोट है। इसे  बम कोट भी कहा जाता है। कोट एक ऊंट की पीठ की तरह लंबी डंडी जैसी पहाड़ी पर है। इसमें दो-तीन भवनों की नींव अभी भी मौजूद है। कोट में एक सुरंग भी है। कहा जाता है कि यह सुरंग बुंगा गांव तक जाती थी।

ऊंचा कोट- यह कोट  पिथौरागढ़ में पौड़गााव के पूर्व में है। यह कोट एक ओर से तराश कर बनाया गया है, जबकि तीन ओर से पहाड़ी हैं। यह आयताकार आकार का है। इसके एक भवन की नींव और बीच में चट्टान को काटकर एक जलाशय बनाया गया है। अब देवी का मन्दिर भी है।

बुंगा- पिथौरागढ़ में बुंगा गांव के खेतों में छोटा टीला है। इसे बुंगा कहते हैं। इस गांव में भी एक कोट था। यह गांव सातशिलिंग व जाजर देवल के बीच में है।

सीराकोट- पिथौरागढ़ जिले में डीडीहाट के निकट सीराकोट है। यह स्थान छनपाटा नौली के नाम से भी जाना जाता है। इस किले में पांच परकोटे बने हैं। पुराने महल के भग्नावशेष आज भी देखे जा सकते हैं। कोट में चढ़ने व उतरने के लिए बड़े-बड़े पत्थरों के गेट व सीढ़ियां बनाई गई हैं। यहां एक सुरंग भी थी।  यहां अब मंदिर है।

राजकोट- यह कोट पिथौरागढ़ जिले में खेतार गांव के पूर्वी भाग में है। तराश कर बनाया यह कोट अण्डाकार आकार का है। इस कोट से रौतिस नदी तक जानेके लिए सुरंग बनी थी।

सुवालेख कोट- पिथौरागढ़ जिले में यह कोट अर्जुनी नदी के किनारे व सुवालेख गांव के पश्चिमी भाग में एक छोटा टीला युक्त कोट है। यह कोट तीन ओर से प्राकृतिक तौर पर बना है। अर्जुनी नदी से यह अर्द्धगोलाकार में घिरा है।

मुसी कोट- पिथौरागढ़ जिले में बड़ल और मुसगांव के बीच में मुसीकोट है। यह टीला युक्त अण्डाकार कोट है।

कार्की कोट- पिथौरागढ़ जिले में रामगंगा के नदी के किनारे कार्की गांव के पश्चिमी भाग में यह कोट टीला युक्त है। अब यहां चीड़ का घना जंगल है। इस कोट में सुरंग व पानी की कुंड बनी है।

बांस कोट- पिथौरागढ़ जिले में रामगंगा नदी के पूर्व में बांस गांव में एक ऊंचा टीला में यह कोट था। कोट के अवशेष और एक ओखल मौजूद है। इस कोट का राम गंगा नदी के पार बुरसुम कोट, बहिलकोट व अन्य कोटों से संबंध था।

जतिया कोट- पिथौरागढ़ जिले में गंगोलीहाट तहसील के तहत यह कोट दो नदियों के संगम स्थल  बांस पठान गांव के उत्तर पूर्वी भाग में है। यहां अब देवी का मन्दिर है। इस कोट में एक लम्बी सुरंग भी थी।

मणिकोट-  पिथौरागढ़ जिले में यह कोट  गंगोलीहाट से लगभग दो किमी दूर एक ऊंचे टीले पर दो गधेरों व एक नदी के शिखर में है।अब इस कोट एक शिव मंदिर है।

बनकोट-  पिथौरागढ़ जिले में गंगोलीहाट तहसील के तहत बनकोट गांव के शिखर में यह कोट है। यह कोट 1990 के दशक में  चर्चा में आया था। तब यहां एक चट्टान के नीचे सात ताम्र मानवाकृतियां मिलीं थी।

रौता कोट- पिथौरागढ़ जिले में सरयू नदी के पूर्वी भाग में रौतासेरा के शिखर भाग में रौताकोट एक टीले में है। यह चारों ओर से चट्टान को तराश कर बनाया गया है। यहां मृदभाण्ड भी मिलते हैं।

बहिल कोट- पिथौरागढ़ जिले में गंगोलीहाट व रामगंगा के बीच में यह कोइ है। इसी कोट के दक्षिणी भाग में एक ग्रामीण कोट भी था। अब दोनों के निशान मिट चुके हैं।

अस्कोट- पिथौरागढ़ जिले में अस्कोट को अस्सी कोटों से जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि कभी इस कोट के तहत अस्सी कोट थे। इसलिए अस्कोट कहा गया। अस्कोट  टीला युक्त व भवनीय कोट है। इसमें राजा रहता था,  जबकि सैनिक चारों ओर से राजा की रक्षा अन्य टीले युक्त कोटों से करते थे। इस कोट के तहतह अस्सी कोट इस तरह हैं। बनकोट, बलुवाकोट, मदकोट,ख्वॉकोट,सुनकोट, विजयकोट, ऊंचाकोट,रानीकोट,मासीकोट, हंसिकोट, धारचूला, कोट, तिमिरकोट, बिजुलकोट, छिपुलाकोट, लुरकोट, बाराकोट, तमकोट, धौलकोट, लखनपुरकोट, वर्तियाकोट, रौलकोट, रैकोट, अमकोट, उत्तमकोट, बसकोट, पारकोट, भुरीकोट, पत्थरकोट, भैंसकोट, दमकोट, नानुरकोट, मुनकोट, कैंड़ाकोट, सुंगरकोट, बामकोट, जारकोट, सैकोट, भड़कोट, तड़कोट, जयकोट, पसियाकोट, छैमणकोट, अभयकोट, खीराकोट, मरियाकोट, रणुवाकोट, केसरकोट, सुनकोट, धूमाकोट, लूकोट, कोटाकोट, जुबलीकोट, चौकोट, डूमाकोट, धवॉरियाकोट, शिखरकोट, सीमियाकोट, धौलाकोट, ड्योड़ीकोट,बैड़ाकोट, दम्दाकोट, निसीलकोट, श्रीकोट, दुलकोट, कनियाकोट, दरकोट, कल्लाकोट, ध्वजकोट, साईकोट, डुमरकोट, भंगिरकोट, कैलकोट, लछीकोट, मल्लाकोट, हिलूकोट, पारकोट, रौलकोट, ख्वॉकोट, पीपलकोट, जसकोट आदि हैं। धारचूला तहसील के अन्तिम गांव कुटी में भी एक किले के खंडहर हैं।

ग्रामीण कोट- गांवों में इस तरह के कोट होते थे। ये कोट  गांव के बीच में होते थे। इसका प्रधान गांव का सयाना, बूढ़ा या थोकदार होता था। कहीं पर इन कोटों को राजखली, देवचौरा, बुंगा एवं कोट भी कहते थे। ये कोठी जैसे थे।

भयनीयकोट- प्रत्येक गांव  में जहां विशेषकर सयाना, बूढ़ा, चौधरी, थोकदार, अधिकारी एवं नेगी अधिकारी होते थे वहां भवनीय कोट भी होते थे।

काशीपुर किला – यह किला यहां  द्रोण सागर के निकट है। यह  एक पुरातन काल का किला  है । इसे उज्जैन भी कहते हैं। क़िले में ज्वाला देवी है, जिन्हें उज्जैनी देवी कहा जाता है, की मूर्ति भी स्थापित है। काशीपुर किले में महाभारत काल से लेकर सल्तनत काल तक के प्रमाण मौजूद हैं। काशीपुर के ऐतिहासिक गोविषाण टीले के उत्खनन में छठी शताब्दी तक के अवशेष मिले हैं।  इसे गोविषाण नाम से जाना जाता है। ये दो शब्दो गो (गाय) और विषाण (सींग) से बना है। इसका अर्थ गाय का सींग है। प्राचीन समय में गोविषाण को तत्कालीन समय की राजधानी व समृद्ध नगर कहा गया है। सातवीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी अपनी भारत यात्रा के दौरान इस स्थान का वर्णन किया है।

यह था  कुमायुं के कोट यानी किलों (kot or fort of Kumaon)का इतिहास । यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है। हमारे सहयोगी चैनल – संपादकीय न्यूज—को भी देखते रहना। अगली वीडियो की प्रतीक्षा कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।

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