गढ़वाल के फ्यक्वाल- सेम मुखेम के ब्राह्मण किसके श्राप से मांगते रहे हैं भिक्षा

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परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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जै हिमालय, जै भारत। हिमालयीलोग के इस यूट्यूब चैनल में आपका स्वागत है। मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा इस बार उत्तराखंड के फ्यक्वाल (Fyakwal)को लेकर जानकारी लेकर आया हूं।

 

जब तक मैं आगे बढूं, तब तक आपसे अनुरोध है कि इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब  करके नोटिफिकेशन की घंटी भी अवश्य दबा दीजिए, ताकि आपको नये वीडियो आने की जानकारी मिल जाए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, धरोहर, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं।  अपने सुझाव ई मेल कर सकते हैं।

यदि आप लोगों का बचपन पहाड़ में बीता है तो याद कीजिए हर साल शरद ऋतु में कुछ लोग गांवों में आते थे और भिक्षा मांगते थे इसके बदले में वे ज्योतिष से लोगों को उनके भूत व भविष्य के बारे में बताते थे। वे जोगी या भिखारी भी नहीं थे। उनको फ्यक्वाल (Fyakwal)कहते थे। गढ़वाली में यह शब्द फ्वक्वा से आया है। फ्वक्वा करने वाला यानी फ्यक्वाल शब्द बना। फ्वक्वा शब्द उसके व्यक्ति के लिए कहा जाता है जिसे लेकर मान्यता रहती है कि उस पर देवता आता है और वह  लोग उसके पास अपने प्रश्नों को लेकर जाते हैं और वह उनका कारण व समाधान  बता देता है। फ्यक्वालों से एक घटना मुझसे भी जुड़ी है। तब देहरादून पढ़ता था। हो सकता है कि संयोग हो, परंतु तब एक फ्यक्वाल ने दो पंक्तियां  कहीं थी, वे आगे चलकर सत्य साबित हुई।

अब यह फ्वक्वाल परंपरा अब लुप्त होती जा रही है। अब गांवों में फ्वक्वाल नहीं दिखाई देते हैं। ये लोग टिहरी-उत्तरकाशी के सेम मुखेम क्षेत्र के लोग हैं। कहा जाता है कि इस क्षेत्र के लोगों को भगवान का श्राप था कि फसल पकने पर उनकी खेती खत्म हो जाएगी , इसलिए उन्हें भिक्षाटन करने जीविका प्राप्त करनी होगी। यह श्राप क्यों है, इसे लेकर बहुत सी  कहानियां हैं। फ्वक्वालों का भिक्षाटन का क्षेत्र उत्तराखंड के साथ ही हिमाचल प्रदेश, पंजाब से लेकर मुंबंई तक रहा है। ये लोग टिहरी और उत्तरकाशी के रैंका, रमोली व जोगत क्षेत्र के ब्राह्मण हैं। इसी क्षेत्र में प्रसिद्ध सेम मुखेम नागराजा मंदिर भी है। इनमें सेमवाल, नौटियाल, भट्ट, मिश्रा आदि जातियां शामिल हैं। इनके साथ इन क्षेत्रों के राणा समेत कई क्षत्रिय जातियों के लोग भी  इनके सहायक के तौर पर इनके साथ जाते थे। ब्राह्मणों के साथ रहकर वे भी ज्योतिष जानने लगे थे। फ्वक्वालों में बहुत से लोग  भृगुसंहिता और रावण संहिता के प्रकांड विद्वान थे। यह भी कहा जाता है कि उनके मुख से ऐसी वाणी निकलती थी कि वह सत्य हो जाती थी। जैसा कि औघड़ बाबाओं के बारे में कहा जाता है कि उनके मुख से जो भी निकलता है, सच हो जाता है। फ्यकवालों में हालांकि कई से ऐसे भी थे जिनको ज्योतिष के बारे में कुछ भी ज्ञान नहीं था, परंतु वे भी बढ़चढ़कर बातें बोल देते थे।

भृगुसंहिता ज्योतिष के रचयिता महर्षि भृगु हैं, वे वैदिक काल के सात ऋषियों में से एक हैं। इसी तरह रावण संहिता से व्यक्ति की कुंडली के आधार पर उसके भूत, वर्तमान व भविष्य के सटीक फलादेश किया जाता है। ज्योतिष की लाल पुस्तक इसी से निकली बताई जाती है।मान्यता है कि भगवान सूर्य के निर्देश पर उनके सारथी अरुण ने उनके ज्योतिष शिष्य रावण को अरुण संहिता प्रदान की थी। जिसे लाल किताब के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है कि रावण ने इस ग्रंथ को अपने शोध से संपादित कर परिष्कृत रुप में सामने रखा था। इन संहिताओं से व्यक्ति की कुंडली के आधार पर उसके भूत, वर्तमान व भविष्य को लेकर सटीक फलादेश किया जाता है। (Fyakwal)

 प्रश्न यह है कि  सेम मुखेम (Sem Mukhem Nagraja) क्षेत्र के लोगों को भिक्षाटन के लिए क्यों जाना पड़ता था। कहा जाता है कि इनको श्राप है कि भिक्षाटन से ही इनका जीवनयापन होगा। यह भी कहा जाता है कि जब भी इनके यहां फसल होती थी तो कटाई के समय तेज बारिश व ओले पड़ जाने से फसल नष्ट हो जाती थी। इसलिए ये लोग भिक्षाटन के लिए मजबूर हो गए। इस श्राप को लेकर यहां के सेम मुखेम नागराजा से भी जोड़ा जाता है। सेम मुखेम नागराज मंदिर को उत्तराखंड का पांचवां धाम भी माना जाता है। मान्यता है कि द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण सेम मुखेम आए थे। उन्हें यह स्थान बेहद प्रिय लगा। यहां की प्राकृतिक छटा से आकर्षित भगवान श्री कृष्ण ने यहां रहने का मन बनाया। तब यहां का राजा गांगू रमोला था। भगवान श्रीकृष्ण  साधू का वेश रखकर राजा रमोला के पास गए आरउससे यहां रहने के लिए जगह देने का आग्रह किया। परंतु राजा गांगू रमोला ने यह सोचकर कि कोई अनजान व्यक्ति है उन्हें भूमि देने से मना कर दिया। इससे कहा जाता है की इस क्षेत्र को श्राप हो गया कि यह भूमि श्रापित रहेगी। साधू रूप में भगवान श्रीकृष्ण ने राजा को श्राप दिया था कि उसके कुटुंब का हर व्यक्ति भिक्षा मांगेगा। कहा जाता है कि तब से लेकर आज भी सेम मुखेम के लोग साल में एक बार भिक्षा  अवश्य मांगते हैं। यही लोग फ्यक्वाल के नाम से पुकारे गए। धनी हो या गरीब, सभी इस परंपरा को निभाते हुए ये लोग गढ़वाल, कुमायुं से लेकर हिमाचल प्रदेश, पंजाब तक भिक्षाटन के लिए जाते थे। मुंबई भी जाते थे। इन स्थानों पर उन्होंने अपने मठ भी बनाए हैं। कई के पास अकूत संपत्ति भी  गई। इसलिए अब उनका दूर-दराज भिक्षाटन के लिए जाना बंद हो गया। परंपरा को निभाने के लिए आसपास के क्षेत्रों में ही भिक्षाटन कर लेते हैं।

गंगू रमोला की बाकी की कहानी  इस तरह है कि  बाद में राजा रमोला ने भगवान को भूमि दे दी थी। परंतु देर हो चुकी थी।  कहा जाता है कि राजा रमोला के भूमि देने से मना कर देने पर भगवान श्री  कृष्ण एक दिन उसी के पास के क्षेत्र के  नागवंशी राजा के स्वपन में आए  और उन्होंने अपने वहां रहने को लेकर नागवंशी राजा को बताया। नागवंशी राजा ने अपनी सेना के साथ भगवान श्री  कृष्ण के दर्शन के लिए वहां जाने की योजना बनाई। परन्तु राजा रमोला ने  उसे अपनी भूमि पर आने से मना कर दिया। इस पर नागवंशी राजा क्रोधित हो गए। उन्होंने राजा रमोला पर आक्रमण करने की तैयारी कर ली। लेकिन उसने युद्ध से पहले नागवंशी राजा ने  राजा गंगू रमोला को भगवान के बारे में बताना उचित समझा।  भगवान श्री  कृष्ण के बारे में जानने के बाद राजा रमोला ने भगवान से क्षमा मांग ली थी। भगवान ने राजा रमोला को क्षमा भी कर दिया।  इसके बाद भगवान श्री कृष्ण वहां नागवंशियों के राजा नागराजा या नागर्जा के रूप में जाने जाने लगे।

  कुछ समय पश्चात भगवान वहां के मंदिर में सदैव के लिए एक बड़े से पत्थर के रूप में विराजमान होकर अपने परमधाम को  चले गए। इसी पत्थर की आज भी नागराजा के रूप में पूजा होती है। यह भी कहा जाता है कि अपनी  पत्नी मैनावती के कहने पर राजा रमोला ने साधू वेषधारी श्रीकृष्ण से क्षमा मांग ली थी। भगवान श्रीकृष्ण ने राजा की पत्नी से वरदान मांगने को कहा। उनकी कोई संतान नहीं थी। रानी ने वरदान के रूप में पुत्र का वर मांगा। इस पर राजा रमोला के दो पुत्र बिदुआ और सिदुआ हुए। उनके दुधारू पशुओं को भी श्राप मुक्त कर दिया। राजा रमोला ने बाद में वहां भगवान के सात मंदिर बनवाए।

यह भी कहा जाता है कि  भगवान ने कालिया नाग को  यमुना से भागकर सेम मुखेम में जाने को कहा था।  कालिया नाग ने उनसे सेम मुखेम में दर्शन देने की विनती की थी इसलिए  भगवान  श्रीकृष्ण सेम मुखेम आए थे।  सेम मुखेम में भगवान श्रीकृष्ण को शेषनाग के अवतार के रूप में पूजा जाता है।

इस तरह की बहुत सी कहानियां प्रचलित हैं। परंतु यह भी देखने लायक बात है कि बिदुआ और सिदुआ को कुमायुं की गाथाओं के नायक है। किस से औय क्यों ये कहानियां आपस में मिला दी। गंगू रमोला को कत्यूर राज का राजा माना जाता है। परंतु उसे भी भगवान श्री कृष्ण के काल का बताया गया है। सत्य जो भी हो। परंतु फ्यक्वालों की गाथा से सेम मुखेम के जुड़ जाने से कहानी बहुत दिलचस्प हो जाती है।

गंगू रमोला ने श्रीकृष्ण के छह  जगह पर मंदिर बनवाए। ये मंदिर वरकटा सेम,  प्रगटा सेम, तलबला सेम,  गुप्त सेम, आरोनी सेम  और बरौनी सेम  के नाम से जाने जाते हैं। जब राजा गंगू रमोला ने सातवां मन्दिर बनाया तो  भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं उन्हें नागराजा के रूप में  दर्शन दिए। इस जगह को प्रकटा सेम के नाम से जाना जाता है। ( Fyakwal)

यह था उत्तराखंड के फ्यक्वाल (Fyakwal) और सेम मुखेम के नागराजा मंदिर की गाथा। यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है। हमारे सहयोगी चैनल – संपादकीय न्यूज—को भी देखते रहना। अगली वीडियो की प्रतीक्षा कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।

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