जै हिमालय, जै भारत।
परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा
हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली
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उत्तराखंड के गांवों के किसी भी परिवार में 1863 तक शराब पीने वाला एक भी व्यक्ति नहीं था। तत्कालीन कुमायुं के सीनियर कमीश्नर ने 1863 में आबकारी विभाग को भेजी रिपोर्ट में लिखा था कि पहाड़ के लोग नशे के व्यसन से मुक्त हैं। हालांकि उन्होंने अपनी रिपोर्ट में यहां कि कुछ जनजातियों के बनाए विशेष तरल नशे के प्रयोग भी बात जरूर कही थी। अब यह विचारणीय प्रश्न है कि आखिरकार इन 159 वर्षों में ऐसा क्या कुछ हो गया कि पहाड़ के गांव-गांव शराब पहुंच गई। यही बात मैं यहां बताने जा रहा हूं।
उत्तराखंड को लेकर कहावत प्रचलित है कि सूर्य अस्त-पहाड़ मस्त। परंतु अब तो लोग सूर्य के अस्त होने का भी इंतजार नहीं कर रहे हैं। हालांकि विभिन्न राज्यों में मैंने उनके बारे में भी यही कहावत सुनी है। उत्तराखंड में टिंचरी माई के आंदोलन से लेकर उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के – नशा नहीं, रोजगार दो- जैसे नारे के साथ शराब विरोधी आंदोलन समेत कई नशा मुक्ति के आंदोलन हुए। परंतु, हालात नहीं सुधरे। मामला व्यक्ति विशेष के शराब पीने तक रह जाता तो ठीक था, परंतु जब शादी में पकवानों के साथ शराब परोसने की गलत परंपरा शुरू हो गई तो मामला और गंभीर हो गया। इस परंपरा को उचित नहीं कहा जा सकता है। आज भी पहाड़ के अधिकतर गांवों में शादी ब्याह, जन्मदिन पार्टी, समेत विभिन्न समारोहों के अवसर पर सामूहिक तौर पर शराब के उपयोग का प्रचलन जारी है। हालांकि कुछ गांवों में इस कुप्रथा पर लगाम लगाने के प्रयास हुए हैं। चुनाव के दौरान तो देशभर में राजनीतिक दलों के प्रत्याशी भी शराब व पैसा बांटते ही हैं। अब तो शादी या अन्य समारोहों तथा कोई भी बड़ा काम कराने के लिए भी शराब की घुट्टी देनी पड़ती है। शादी में अकेले शराब के लिए एक अलग बजट बनाया जाता है। इसमें एक बड़ी राशि खर्च होती है। पहाड़ में अब दहेज का दानव भी पहुंच चुका है। ऐसे में शराब का खर्च आम आदमी की जेब पर भारी बोझ डाल देता है।
वैसै तो कोई व्यक्ति क्या खाए या न खाए। यह उनका निजी मामला है। परंतु तब उसके खानपान से उसके परिवार और समाज पर बुरा असर पड़ने लग जाता है तो इसे लेकर प्रश्न उठना स्वाभाविक है। पश्चिमी देशों में तो लगभग हर व्यक्ति शराब का सेवन करता है, परंतु वे इस तरह से नशे में धुत होकर सड़कों पर नहीं गिरे होते हैं। गाली-गलौच नहीं करते हैं।जैसा कि भारत में शराबी लोग करने लग जाते हैं। नशे के कारण परिवार भी बर्बाद हो रहे हैं। नशेड़ी आए दिन महिलाओं को परेशान करते हैं। घर में मारपीट करने के साथ ही अपनी कमाई भी शराब पर फूंक देते हैं। जमीन-जायदाद से लेकर घर के बर्तन तक बेच देते हैं। परिवार के भूखा मरने की नौबत जाती है। ऐसी में शराब पीना कहां तक जायज है? इसलिए इस मुद्दे पर वीडियो मनाने का विचार आया।
भारत में कानूनी तौर पर शराब पीने की उम्र और शराब की बिक्री और खपत को नियंत्रित करने के लिए कानून भी हैं। चूंकि शराब का विषय राज्य की सूची में शामिल है। इसलिए यह राज्यों पर निर्भर करता है कि वे कैसे कानून बनाते हैं। शराब को लेकर राज्यों के कानून भिन्न-भिन्न होते हैं। वैसे – सूर्य अस्त- पहाड़ मस्त की बात भले ही कही जाती हो, परतु भारत में शराब के सेवन के मामले में उत्तराखंड कभी भी प्रथम स्थान पर नहीं रहा है। हर साल सरकारी और गैर सरकारी संगठनों की ओर से शराब की खपत को लेकर किए अध्ययनों के आंकड़े जारी किए जाते हैं। वर्ष 2012 में भी एक रिपोर्ट जारी की गई थी। इसके तहत भारत में बिहार, गुजरात, लक्षद्वीप, मणिपुर, मिजोरम और नगालैंड में शराब प्रतिबंधित है। बाकी शेष राज्यों के लोग हर साल लगभग 600 करोड़ लीटर शराब गटक जाते हैं। सरकारें भी शराब की दुकानें अधिक सेअधिक खोलने के लिए इसलिए प्रयासरत रहती हैं कि शराब पर टैक्स लगाता है और इससे राज्यों की आमदनी बढ़ती है। इन राज्यों की दलील रहती है कि शराबबंदी करने पर लोग कच्ची शराब पीने लग जाते हैं। इससे सरकारों को राजस्व का नुकसान होने के साथ ही जहरीला शराब से लोगों की मौतें भी होती हैं।
वर्ष 2014 की एक रिपोर्ट के अनुसार तब उत्तराखंड में हर दूसरा आदमी पी रहा था। तब 22 अक्टूबर 2014 को प्रदेश के समाचार पत्रों में यह रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान अकादमी की 54वीं वार्षिक कांफ्रेंस (नाम्सकोन-2014) एम्स की ऋषिकेश शाखा में – शराब के दुष्प्रभाव तथा प्रमाण पर आधारित राष्ट्रीय नीति की आवश्यकता- विषय पर यह गोष्ठी हुई थी। इस दौरान उत्तराखंड में शराब की खपत के बारे में बताया गया कि राज्य में अन्य राज्यों के मुकाबले सर्वाधिक 52 फीसदी लोग रिकॉर्ड शराब का प्रयोग कर रहे हैं, परंतु, सरकार इसकी रोकथाम के उपाय नहीं कर रही है।
इसी तरह 22 जुलाई 2014 को जारी एक अन्य सर्वे में कहा गया था कि देश में क्रमश: छत्तीसगढ़, पंजाब, त्रिपुरा और अरुणाचल प्रदेश में औसतन सबसे ज्यादा शराब की खपत है। जबकि पंजाब, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा बच्चे शराब का सेवन करते हैं। इन राज्यों में बच्चों के शराब के खपत का औसत राष्ट्रीय औसत का ाकरीब तीन गुना है। पुरुषों में शरीब का सेवन करने वाले करीब 95 फीसदी की उम्र 18 से 49 वर्ष है। ये आंकड़े बदलते रहते हैं, परंतु उत्तराखंड का नाम पहले तीन राज्यों में कभी नहीं रहा है। इसके बावजूद उत्तराखंड को लेकर- सूर्य अस्त-पहाड़ मस्त—की बात कही जाती है। इसका कारण यह है कि पहाड़ में शराब के खिलाफ सबसे अधिक आंदोलन भी हुए।
दरअसल, पहाड़ में जितनी तेजी से शराब का सेवन बढ़ा, उसी हिसाब से उसके विरोध में आंदोलन भी हुए। शराब विरोधी आंदोलन की कमान अधिकतर महिलाओं के हाथ ही रही। संयुक्त उत्तर प्रदेश के समय में महिलाओं को इसके लिए जेल भी जाना पड़ा था।इस क्रम में सबसे पहले टिंचरी माई का नाम आता है। में पौड़ी गढवाल के थलीसैण तहसील के मंज्युर गांव में 1917 को जन्मी दीपा नौटियाल का जीवन संघर्षमय रहा। बचपन में ही मां पिता को खोने वाली दीपा ने शादी के मात्र १२ साल में फौजी पति को भी खो दिया। इसके बाद वह सन्यासिनी बन कर समाज सेवा में लग गई। नाम मिला। नाम मिला। इच्छाधारी माई। तब उत्तराखंड में नशाबंदी थी। वहां आयुर्वेदिक दवाओं का प्रयोग किया जाता था। इन्हीं आयुर्वेदिक दवाओं में टिंचरी भी शामिल था। टिंचरी की अधिक मात्रा डालने से वह रसायन शराब सा नशा कर देता था। यह एक दवाई थी और सस्ते दामों में उपलब्ध थी। इसलिए लोग इसे पीने लगे थे। इससे परिवार बर्बाद हो रहे थे। इच्छागिरी माई ने इस दवा की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने की मांग की। अफसरों ने जब उनकी नहीं सुनी तो खुद मिट्टी का तेल अपने साथ लेकर गई और पूरी दुकान पर छिड़क कर आग लगा दी थी। इस घटना से इच्छागिरी माई को टिंचरी माई (Tinchari Mai) नाम मिल गया। 1960 के दशक में टिंचरी माई के इस आंदोलन की आग गढ़वाल समेत कुमाऊं के अल्मोड़ा तक पहुंची थी। वे अपने जीवन के अंतिम समय तक नशे के खिलाफ आवाज उठाती रही।
यह जानकर आश्चर्य हुआ होगा कि कैसे पहाड़ शराब के नशे में धंसता चला गया। उत्तराखंड में 1863 में तब के कुमायुं कमिश्नर ने कहा था कि यहां शराब पीने का प्रचलन नहीं है। इसी तरह परंतु 1882 में तत्कालीन कमिश्नर ने भी लिखा था कि ग्रामीण क्षेत्र में शराब का प्रयोग बिल्कुल नहीं होता है और मुझे आशा है कि कभी नहीं होगा । मुख्य स्टेशनों के अलावा शराब की दुकान अन्यत्र नहीं खुलने दी जाएंगी। दरअसल तब अंग्रेज सरकार पहाड़ में शराब की दुकानें खोलने लगी थीं। तब शहरों में लोग शराब पीने लगे थे। वास्तव में उत्तराखंड में गढ़वाल और कुमायुं में राजशाही रहने तक शराब का सेवन राज परिवारों, संभ्रात परिवारों तथा धनाड्य लोगों तक ही सीमित था। गोरखा राज आने पर यहां कच्ची शराब की भट्टियां खुलने लगी थीं। गोरखा सैनिक कच्ची शराब बनाते थे। अंग्रेजों का शासन आने के बाद शराब के प्रचलन में तेजी आई। क्योंकि यहां के युवक ब्रिटिश सेना में जाने लगे थे। ये फौजी गांव लौटने पर शराब भी लाते थे। आजादी के बाद तो यहां तेजी से शराब की दुकानें खुलती चली गई। इसके अलावा रिटायर जवान, शहरों से आए लोग, पहाड़ के शहरों में बाहरी लोगों के प्रभाव से भी लोगों में शराब की लत बढ़ती चली गई। खास बात यह है कि जो लोग नशाबंदी के खिलाफ आंदोलनों में शामिल थे या समर्थन करते थे , वे खुद शराब का मोह छोड़ नहीं पाए। इसलिए उनकी विश्वसनीयता भी समाप्त हो गई। इसलिए यह कहावत –सूर्य अस्त-पहाड़ मस्त- यथावत है।
यह था –सूर्य अस्त-पहाड़ मस्त की गाथा।
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जै हिमालय, जै भारत। मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा- सूर्य अस्त-पहाड़ मस्त – लोकोक्ति को लेकर बता रहा हूं। आखिरकार ऐसा क्या हुआ कि सन 1860 के दशक तक शराब को छूने से भी कतराने वाले उत्तराखंड में घर-घर यह घुट्टी कैसे पहुंच गई। जब तक मैं आगे बढूं, तब तक आपसे अनुरोध है कि इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब तथा नोटिफिकेशन की घंटी भी अवश्य दबा दीजिएगा।आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं। अपने सुझाव ई मेल कर सकते हैं।
शराब पर बोलने से पहले मैं साफ कर देता हूं कि जर्नलिस्ट होने के बावजूद मैं शराब, धूम्रपान समेत हर तरह के नशे से मुक्त हूं। पूर्णत: शाकाहारी हूं। ये संस्कार और गुण हेड मास्टर रहे मेरे पिता स्व सीताराम लखेड़ा जी मेरे में से आए हैं। इस कारण देश की पत्रकारिता की मुख्यधारा में रहते हुए मुझे यह ताने भी मिलते रहे कि कैसे पत्रकार व पहाड़ी हो, जो पीते नहीं हो। आम धारणा है कि सभी पत्रकार शराब अवश्य पीते हैं। यह सब इसलिए बता रहा हूं कि ताकि आप को यह न लगे कि बस कोरे भाषण दे रहा हूं।
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