शिल्पकारों के सम्मान का था डोला-पालकी आंदोलन

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उत्तराखंड के शिल्पकार-दो

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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आंदोलनों की भूमि उत्तराखंड में पिछली सदी में डोला पालकी आंदोलन हुआ था। बात १९वीं सदी की है।  यह उत्तराखंड समेत भारतीय इतिहास में दलितों के अपने अधिकारों को लेकर किए आंदोलनों में से एक था। यह आंदोलन गढ़वाल मंडल से शुरू हुआ था। उत्तराखंड में सवर्णों तथा स्थानीय मुसलमान युवक -युवतियां के विवाह में वर-वधू को ले जाने के लिए डोला-पालकी का प्रयोग किया जाता था। यह परंपरा  सदियों से जारी थी। वधू के लिए डोला एवं वर के लिए पालकी का प्रयोग किया जाता था।  बारात में डोला-पालकी उठाने का कार्य मुख्यत: शिल्पकार ही करते थे।  परंतु, शिल्पकारों को उनके पुत्र- पुत्रियों के विवाह में वर-वधू के लिए डोला-पालकी के प्रयोग का सामाजिक अधिकार नहीं था। शिल्पकार समाज के वर वधुओं को डोला-पालकी की बजाए पैदल की जाना पड़ता था।  इस  नियम का पालन नहीं करने पर उन्हें दंड दिया जाता था।

अंग्रेजों का शासन आने के बाद उत्तराखंड के शिल्पकार भी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने लगे थे। उन्होंने अपने लिए शिल्पकार शब्द के प्रयोग का अधिकार पाने के लिए सफल आंदोलन किया था। उत्तराखंड में शिल्पकारों को ईसाई बनने के रोकने के लिए आर्य समाज भी  सक्रिय था। 1920 में आर्य समाज ने अकाल राहत व शैक्षणिक कार्यक्रम प्रारंभ किए। आर्य समाज  ने शिल्पकारों को सवर्णों के समान सामजिक अधिकार दिलाने के उद्देश्य से उनका जनेऊ संस्कार भी किया। आर्य समाज के संपर्क में आने से बहुत से शिल्पकार युवक स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के साथ ही सामाजिक बुराइयों को खत्म करने के लिए भी प्रयास करने लगे।  ऐसे ही एक शिल्पकार समाज के युवक थे जयानंद भारती। जयानंद भारती ही  डोला पालकी आंदोलन के प्रणेता थे। 17 अक्टूबर 1881 को पौड़ी गढ़वाल में जन्में जयानंद भारती ने शिल्पकारों के वर –वधू को डोला-पालकी में बैठने के अधिकार के लिए संघर्ष शुरू कर दिया। सन 1924 में जयानंद भारती के नेतृत्व में डोला-पालकी बारातें निकालने की योजनाएं बनाई गई। इस अभियान में आर्यसमाजी नेता शामिल थे। कोटद्वार- दुगड्डा के पास के रिखाल तथा बिंदल गांव को इसके लिए चुना गया। क्योंकि वहां के शिल्पकार अन्यों की तुलना में समृद्ध थे। तय योजना के तहत शिल्पकारों की बारात ने डोला-पालकी के साथ कुरिखाल से बिंदल गांव के लिए प्रस्थान किया। उनके रास्ते में कहीं भी सवर्णों के गांव भी नहीं थे। परंतु दुगड्डा के निकट चर गांव के हैदर नाम के मुस्लिम युवक के नेतृत्व में शिल्पकारों की बारात रोक दी गई। इस विरोध में मुसलिम व हिंदू सवर्ण शामिल थे। शिल्पकारों की डोला-पालकी तोड़ दी गई। बारातियों के साथ मार- पीट भी की गयी। चार दिन तक बारात वहीं रास्ते में रुकी रही। अंग्रेज सरकार ने हस्तक्षेप भी किया। परंतु डोला पालकी  वाली शिल्पकारों की बारातों में को रोका जाता रहा। अंतत:  जयानंद भारती  ने अदालन का रुख किया। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने शिल्पकारों के पक्ष में निर्णय लिया। हालांकि इसके बाद भी शिल्पकारों की डोला-पालकी की बारातों का विरोध नहीं रुका। भारती ने महात्मा गांधी को पत्र लिख कर आग्रह किया कि गढ़वाल में शिल्पकारों की बारातों पर अत्याचार बंद होने तक वे व्यक्तिगत सत्याग्रह पर रोक लगा दे। गांधी जी ने भारती पत्र को गंभीरता पूर्वक लिया और गढ़वाल में शिल्पकारों के उत्पीड़न बंद होने तक व्यक्तिगत सत्याग्रह पर रोक लगा दी। इस तरह यह मामला बड़ा मुद्दा बन गया था। अप्रैल, 1946 में जयानन्द भारती ने दुगड्डा में आर्य समाज के सम्मेलन का आयोजन किया।  जिसमें एक बार फिर से डोला पालकी संबंधी प्रस्ताव पारित किए गए थे। यह वही भारती थे जिन्होंने  तत्कालीन अंग्रेज गवर्नर मैलकम हेली के पौड़ी दौरे के समय काला ध्वज लहराया व वन्दे मातरम के नारे लगाने के साथ ही ‘गवर्नर गो बैक’ के नारे लगाए थे। इसके बाद उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया व उन्हें एक वर्ष के कठोर कारावास की सजा हुई थी।

डोला पालकी को लेकर  अंतत: सवर्ण भी शांत हो गए। समय भी बदलने लगा था। सवर्णों में खुद ही डोला-पालकी का प्रयोग कम होने लगा था। हालांकि  1980 का अल्मोड्रा का कफल्टा कांड  इस जख्म को फिर से कुरेद गया। यह विवाद वैसे तो मंदिर के निकट दूल्हे को पालकी से उतर के जाने से शुरु हुआ। लोगों ने भगवान को सम्मान देने के लिए शिल्पकारों की बारात से दूल्हे को कुछ दूरी तक पालकी से उतरने को कहा था। परंतु  शिल्पकारों ने ऐसा करने से मना कर दिया  था। इस कांड में एक सवर्ण और 14 शिल्पकार मारे गए थे। यह एक आपवाद जैसी घटना था। अब पहाड़ में  डोला-पालकी प्रथा ही लगभग समाप्त हो चुकी है। अब तो   वर- वधू कार से तथा बारात बसों से जाते हैं।


 

 जै हिमालय, जै भारत। मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा इस बार उत्तराखंड के शिल्पकारों के डोला पाली आंदोलन की जानकारी दे रहा हूं। जब तक मैं आगे बढूं, तब तक इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब अवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं,सहयोगी यूट्यूब चैनल संपादकीय न्यूज।

यह थी उत्तराखंड के डोला-पालकी आंदोलन की गाथा। यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है। हमारे सहयोगी चैनल – संपादकीय न्यूज—को भी देखते रहना। अगली वीडियो का इंतजार कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।

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