राजतरंगिणी में क्या कुछ लिख गए कश्मीर के महाकवि कल्हण

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परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति ,नई दिल्ली

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राजतरंगिणी  कश्मीर  के इतिहास का प्रमाणिक  ग्रंथ है। यह महान कवि कल्हण रचित एक संस्कृत ग्रन्थ है। संस्कृत शब्द ‘तरंग ‘ का अर्थ होता है -लहर। जल की लहरें। राजतरंगिणी का शाब्दिक अर्थ है – राजाओं की नदी, जिसका भावार्थ है – ‘राजाओं का इतिहास या समय-प्रवाह’। यह कविता के रूप में है। इसमें कश्मीर का इतिहास वर्णित है जो महाभारत काल से आरम्भ होता है। इसका रचना काल सन  1147  से 1149 तक माना जाता है । इस पुस्तक के अनुसार कश्मीर का नाम कश्यपमेरु था। कश्यपमेरु,  ब्रह्मा के पुत्र ऋषि मरीचि के पुत्र थे। राजतरंगिणी में कल्हण ने आठ तरंगों में कश्मीर के राज परिवारों के उतार-चढ़ाव का वर्णन किया है।

अब पहले  महान कवि कल्हण के बारे में बता देता हूं। कल्हण ने पहले के कवियों से हटकर काम किया। पहले के कवि ऐतिहासिक घटनाओं में काल्पनिक घटनाएं भी शमल कर देते थे। इससे इतिहास पीछे चला जाता था। कश्मीर में   11वीं शताब्दी के अंतिम दिनों में अर्थात  सन 1089 से 1101 तक  हर्ष नाम का एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा अत्याचरी था। कश्मीर की प्रजा ने हर्ष के अत्याचारों से दुखी होकर विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह 7 वर्ष तक चलता रहा। अंतत: हर्ष मारा गया। उसके दरबार में चंपक नाम का ब्राह्मण मंत्री था। कल्हण उसी मंत्री चंपक के पुत्र थे। राजा की मृत्यु के समय कल्हण छोटे थे। इसीलिए  माना जाता है कि उनका जन्म सन 1100  के लगभग हुआ होगा। हर्ष की मृत्यु के बाद उनके पिता ने राज दरबार से अपना संबंध तोड़ दिए थे। कल्हण के चाचा कनक भी काशी में जाकर बस गए थे। कल्हण चाहते तो उन्हें बड़ी आसानी से मंत्री का पद भी मिल सकता था परंतु उन्हें दरबारी नौकरी के प्रति कभी आकर्षण ही नहीं था। वह तो साहित्य के प्रेमी थे और अपना सारा समय पढ़ने लिखने में व्यतीत करते थे। कल्हण ने अपने चाचा कनक के बारे में लिखा है कि वे काशी में रहते थे और उनका जन्म स्थान परिहासपुर था। ऐसा प्रतीत होता है की कल्हण के पिता परिहासपुर में रहते थे और वही शायद कल्हण का भी जन्म हुआ होगा। कल्हण के पिता शिव के भक्त थे और हर साल शिवयात्रा करने जाते थे। बालक कल्हण भी उनके साथ जाते थे। पिता के धार्मिक विचारों की छाप उन पर भी पड़ी थी। फिर भी कल्हण बौद्ध धर्म का बड़ा सम्मान करते थे। धर्म में दी जाने वाली बली और आहुतियां मैं उन्हें विश्वास नहीं था। वह अहिंसा के पुजारी थे। कल्हण ने कठिन परिश्रम करके अपनी पुस्तक राजतरंगिणी  एक वर्ष में ही पूरी कर डाली। महान कवि कल्हण  बहुत उदार ब्राह्मण थे। फिर भी उन्होंने बौद्ध दर्शन की उदात्त परंपराओं को सराहा है और पाखंडी तांत्रिकों को आड़े हाथों लिया। कल्हणने अपने बारे में ज्यादा नहीं लिखा। इससे उनकी व्यक्तिगत जीवन की बातें बहुत कम मालूम है।  कश्मीर के इतिहास का ऐसा वर्णन कल्हण के अलावा संस्कृत के किसी भी अन्य कवि ने नहीं किया। राजतरंगिणी  में महाभारत काल से लेकर कल्हण के काल तक का कश्मीर का इतिहास है। कल्हण के अनुसार कश्मीर घाटी पहले एक विशाल झील थी जिसे कश्यप ऋषि ने बारामुला की पहाड़िया काटकर खाली किया। श्रीनगर शहर सम्राट अशोक महान ने बसाया था और यहीं से बौद्ध धर्म पहले कश्मीर घाटी में और फिर मध्य एशिया, तिब्बत और चीन पहुंचा।

यह ग्रंथ संस्कृत में ऐतिहासिक घटनाओं के क्रमबद्ध इतिहास लिखने का प्रथम प्रयास है। इसमें आदिकाल से लेकर 1151 ई के आरम्भ तक के कश्मीर के प्रत्येक शासक के काल की घटनाओं क्रमानुसार विवरण दिया गया है। कल्हण की राजतरंगिणी में कुल आठ तरंग एवं लगभग 8000 श्लोक हैं। कहा जाता है कि भगवान श्री राम ने अपने पुत्रों और भतीजो को बुलाकर राज्य का बंटवारा कर दिया था। इस बंटवारे में उन्होंने अपने दोनों पुत्रों लव और कुश को कश्मीर में लवपुरी और कुशपूरी के राज्य दिए थे। कल्हण ने कश्मीर के राजाओं के वर्णन में इन दोनों राजाओं का भी उल्लेख किया है । इसमें करीब हजार वर्षों की कहानी है। इसमें उस कालखंड की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति का सही वर्णन मिलता है। राजतरंगिणी से पता चलता है कि उस समय नारियां भी सभाओं की सदस्य होती थी और सिपाहियों के समान लड़ाई के मैदान में लड़ा करती थी।

 कल्हण तथा उनके ग्रंथ राजतरंगिणी का ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्व है। इस ग्रंथ की रचना कश्मीर नरेश जयसिंह यानी सन 1127 से 1159ई.के दौरान हुई थी। इसके आठ तरंगों में कश्मीर देश का प्रारंभ से लेकर बारहवीं शती तक का इतिहास वर्णित है। राजतरंगिणी के प्रथम तरंग में बताया गया है कि सबसे पहले कश्मीर में पांडवों के सबसे छोटे भाई सहदेव ने राज्य की स्थापना की थी और उस समय कश्मीर में केवल वैदिक धर्म ही प्रचलित था। फिर सन 273 ईसा पूर्व कश्मीर में बौद्ध धर्म का आगमन हुआ।

दोस्तों यह थी कल्हण और उनकी राजतरंगिणी की गाथा। जै हिमालय, जै भारत।

 

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