अंग्रेजों से इस तरह भिड़ गए थे उत्तराखंडी — स्वतंत्रता आंदोलन में उत्तराखंड की भूमिका

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परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति /नई दिल्ली

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दोस्तों देश को स्वतंत्रता मिले 75 साल पूरे हो चुके हैं। इस पुण्य अवसर पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं। मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश लखेड़ा – स्वतंत्रता आंदोलन में उत्तराखंड की भूमिका- पर यह वीडियो लाया हूं। जब तक मैं आगे बढूं, तब तक इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब अवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र की संस्कृति, इतिहास, लोक, भाषा, सरोकारों आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं।

देश के स्वतंत्रता आंदोलन में उत्तराखंड के लोगों ने भी अग्रणी भूमिका निभाई। महात्मा गांधी के नेतृत्व में हुआ अहिंसक आंदोलन हो अथवा नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज  व वीर चंद्रशेखर आजाद व सरदार भगत सिंह जैसे महान क्रांतिकारियों का सशस्त्र संघर्ष। सभी मोर्चों पर उत्तराखंड के लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इसी कड़ी में पेशावर कांड के हीरो वीर चंद्रिसंह गढ़वाली का नाम तो सारा संसार जानता है। इससे पहले 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में काली कुमायुं के कालू महरा  को उत्तराखंड का पहला स्वतंत्रता सेनानी होने का गौरव हासिल है।

उत्तराखंड के लोगों ने शांतिपूर्वक स्वतंत्रता आंदोलन में राष्ट्रीय नेतृत्व के साथ कंधा से कंधा मिलाकर भाग लिया।  हालांकि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में उत्तराखंड की ज्यादा भूमिका नहीं रही। इसके कई कारण रहे हैं। एक तो तब  उत्तराखंड में क्रूर गोरखा शासन के अंत हुए ज्यादा समय नहीं बीता था और गोरखों को उत्तराखंड से बाहर करने में अंग्रेजों की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। इसलिए तब लोग अंग्रेजों का बहुत सम्मान करते थे। गोरखाओं के अन्यायपूर्ण और क्रूर शासन की तुलना में अंग्रेजी शासन न्यायसंगत, उदारवादी व सुधारवादी था। क्रूर गोरखाओं को उत्तराखंड से बाहर करने के बाद तो अंग्रेज उद्धारकर्ताओं की तरह पूजे जा रहे थे। तत्कालीन कुमायुं कमिश्नर हेनरी रैमजे कुशल व उदारवादी शासक थे। उत्तराखंड में  गोरखाओं के  कठोर सामंती शासन का अंत हो जाने के बाद 1815 से कुमायुं और ब्रिटिश गढवाल में अंग्रेजों का शासन शुरू हुआ। टिहरी रियासत को छोड़कर बाकी उत्तराखंड में  1856 से 1884 तक कमिश्नर हेनरी रैमजे थे। यह कालखंड ब्रिटिश सत्ता के शक्तिशाली होने का दौर माना जाता है। तब उत्तराखंड में संचार के माध्यम भी नहीं थे इसलिए लोगों तक देश-दुनिया के समाचार देर से पहुंच पाते थे। इसी तरह  टिहरी गढ़वाल नरेश का अंग्रेजों के प्रति भक्ति भाव था। जो कि गोरखों के हथियाए राज्य को अंग्रेजों की मदद से वापस पाने के कारण स्वाभाविक भी था। इसलिए कमिश्नर हेनरी रैमजे के कालखंड में अंग्रेजों के विरोध के बड़े सुर नहीं सुनाई दिए।बाद में अंग्रेजों से जब  कुली बेगार प्रथा  को समाप्त करने की बजाए और कठोरता से लागू  किया, जंगलात समेत कई कानून थोपे  तो लोग उनसे नाराज होने लगे थे।

इधर, उत्तराखंड में समाचार पत्र भी शुरू होते लगे थे। 1868 में ‘समय विनोद’ व 1871 में ‘अल्मोड़ा अखबार’ की शुरुआत हुई। शुरू में सरकार के पक्ष में होने के बाद  धीरे-धीरे इनके सुर भी विरोध में मुखर होने लगे थे। इससे पहले 1883  में बुद्धिबल्लभ पंत की अध्यतक्षता में इलबर्ट बिल के समर्थन में सभा हुई। इससे पहले  1870  में अल्मोड़ा में डिबेटिंग क्लब की स्थापना हुई।  देहरादून में आर्य समाज ने राजनैतिक चेतना फैलाना शुरू कर दया था। 1903  में अल्मोड़ा में गोविंद बल्लभ पंत और हर गोविंद पंत के प्रयत्नों से हैप्पी क्लब की स्थापना हुई । इसका उद्देश्य नवयुवकों में राजनीतिक चेतना का संचार करना था। गढ़वाल यूनियन की ओर से 1905 में देहरादून से गढ़वाली समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू हुआ। इस पत्र के माध्यम से गढ़वाल में सामाजिक एवं राजनीतिक चेतना का प्रचार किया गया। 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में अल्मोड़ा के युवकों ने सभाएं की। इस तरह उत्तराखंड का राजनैतिक वातावरण अंग्रेजों के विरोध में गरमाने लगा था।  बीसवीं शताब्दी के आरंभ में प्रसिद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस भी फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट (एफआरआई)  में नौकरी करते थे। उन्होंने देहरादून में ही गुप्त रूप से क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की और लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंकने की योजना वहीं बनाई। 1912 में कुमायुं  कांग्रेस की स्थापना हुई। 1913 में अल्मोड़ा अखबार के संपादक बद्रीदत्त पांडे के बन जाने से यह अखबार अंग्रेजों की नीतियों के  खिलाफ लिखने लगा। 1914 में विक्टर मोहन जोशी, चिरंजीलाल हेमंत चंद्र, बद्री दत्त पांडे आदि नेताओं ने अल्मोड़ा में होम होम रूल लीग की स्थापना की।

वर्ष 1916 में कुमायुंनी कमिश्नरी की राजनीतिक सामाजिक आदि मुद्दों पर विचार विमर्श के लिए नैनीताल में कुमाऊं परिषद की स्थापना की गई। परिषद ने कुली बेगार, जंगलात, लाइसेंस, बंदोबस्त आदि के विरोध में  आवाज उठाई और आंदोलन चलाया। बाद में इसका कांग्रेस में विलय कर दिया गया था।

इसी दौरान 1916 में महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश लौटे । कुमायुं कमिश्नरी के अल्मोड़ा नैनीताल जिलों में 1918 तक काफी राजनीतिक चेतना आ चुकी थी, लेकिन ब्रिटिश गढ़वाल में बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों तक सामाजिक सुधारों एवं सांस्कृतिक चेतना के लिए काम होता रहा। वहां तारा दत्त गैरोला, चंद्रमोहन रतूड़ी, विश्वंभर  दत्त चंदोला, जोध सिह नेगी जैसे महत्वपूर्ण लोग यह काम कर रहे थे। 1918 में बैरिस्टर मुकुंदी लाल के इंग्लैंड से वापस आ जाने से ब्रिटिश गढ़वाल में राजनीतिक वातावरण गर्म होने लगा था। 1918 में बैरिस्टर मुकुन्दी लाल और अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के प्रयासों से गढ़वाल कांग्रेस कमेटी का गठन हुआ। 1920 के  असहयोग आन्दोलन में   भी लोगोंने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। उसी दौरान उत्तराखंड में  कुली बेगार के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गया था।   अंततः जनवरी 1921 में मकर संक्राति के अवसर पर बागेश्वर में लोगों ने एकत्रित होकर कुली के नाम से बने रजिस्टरों को सरयू में बहा दिया। उसी साल यह कुप्रथा बंद कर दी गई। इससे लोगों की राजनैतिक चेतना का विकास हुआ।

महात्मा गांधी की  उत्तराखंड यात्रा  भी इस आंदोलन को बढ़ाने में सहायक साबित हुई।1915 में अप्रैल माह में गांधी कुम्भ मेले के अवसर पर हरिद्वार आए। यह  गांधी जी का उत्तराखंड में प्रथम आगमन था इस यात्रा के दौरान गांधी जी ऋषिकेश व स्वर्गाश्रम भी गये। इसके बाद वे पांच बार उत्तराखंड आए। वे हल्द्वानी, अल्मोड़ा, बागेश्वर, कौसानी आदि क्षेत्रों में भी आए। एक  अगस्त 1920 को गांधी जी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत की शुरुआत की जिसका उत्तराखंड में अत्यधिक प्रभाव पड़ा।

इसी तरह 23 अप्रैल 1930 का पेशावर कांड सभी को याद है। गढ़वाल राइफल्स के सैनिकों ने चंद्रसिंह गढ़वाली के नेतृत्व में निहत्थे अफगान स्वन्त्रता सेनानियों पर गोली चलाने से इनकार  कर दिया था। 

26 जनवरी 1930 को पूरे देश की तरह उत्तराखंड में भी अनेकों जगह पर तिरंगा फहराया गया।  भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस दिन भारत को पूर्ण स्वराज घोषित किया।उत्तराखंड में इस दिन तिरंगा फहराया गया। असहयोग आंदोलन में भी उत्तराखंड सक्रिय रहा। देहरादून में दर्जन वकीलों ने वकालत छोड़ दी थी। उसी दौरान स्वतंत्रता आंदोलन के साथ ही डोला पालकी आंदोलन भी तेज हो रहा था ।

उत्तराखंड के लोग गांधी जी की दांडी यात्रा में भी शामिल हुए। गांधीजी की साबरमती से डांडी तक की यात्रा में उनके साथ गए  78 सत्याग्रहियों में तीन लोग ज्योतिराम कांडपाल, भैरव दत्त जोशी व खड़ग बहादुर उत्तराखंड के ही थे। स्वतंत्रता संग्राम में उत्तराखंड की महिलाओं का भी अहम योगदान रहा। बागेश्वर की बिशनी देवी साह  स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान जेल जाने वाली उत्तराखंड की पहली महिला थी। इस तरह पूरे देश की तरह उत्तराखंड में भी स्वतंत्रता आंदोलन तेज होने लगा था।  26 मई 1930 को नगरपालिका अल्मोड़ा के भवन में राष्ट्रीय झंडा फहराने की कोशिश की गई।   उसी साल ब्रिटिश गढ़वाल के दुगड्डा में एक राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया गया। जिसे ब्रिटिश गढ़वाल का प्रथम राजनीतिक सम्मेलन कहा जाता है ।

आठ अगस्त 1942 से देशभर में भारत  छोड़ो आंदोलन प्रारंभ हो चुका था। गांधी जी ने करो या मरो का नारा दे दिया था। उत्तराखंड में भी जगह जगह प्रदर्शन व हड़तालें तेज हो गई थीं। भारत छोड़ो आंदोलन में उत्तराखंड के 21 स्वतंत्रता सेनानी शहीद हुए और हजारों गिरफ्तार किए गए।  उत्तराखंड में पहला गोलीकांड अल्मोड़ा में हुआ। 19 अगस्त 1942 को अल्मोड़ा में  विनोला  नदी के   निकट देघाट, मल्ला चौकोट में एक शांति पूर्वक सभा का आयोजन किया गया था।  पुलिस ने  सत्याग्रही खुशाल सिंह मनराल को हिरासत में ले लिया। मनराल को छुड़ाने की मांग कर रहे लोगों पर  पुलिस ने  गोली चलादी। इससे  देघाट गोली कांड में हीरा मणि गडोला, हरिकृष्ण उप्रेती, बद्रीदत्त कांडपाल शाहीद हो  गए थे। इसी तरह  धामधो, सालम में भी गोली कांड हुआ।  25 अगस्त 1942 को पुलिस की गोली से घायल हुए टीका सिंह कान्याल व नरसिंह धानक बाद में शहीद  हो गए थे।

सालम की तरह   5 सितम्बर 1942 को सल्ट क्षेत्र के खुमाड़ गांव में एक जनसभा के बाद जुलूस निकलते हुए  ब्रिटिश अधिकारी जॉनसन ने भीड़ को हटने का आदेश दिया। पुलिस की गोली से  गंगाराम तथा खीमादेव नामक दो सगे भाई शहीद हो गए थे। गोलियों से बुरी तरह घायल चूड़ामणि और बहादुर सिंह से भी बाद में शहीद हो गए। गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन में सल्ट की सक्रिय भागीदारी के कारण गांधी जी ने इसे भारत की ‘दूसरी बारदोली’ से गौरवान्वित किया था।

इसी तरह आजाद हिंद फौज के लेफ्टिनेंट ज्ञान सिंह ने 17 मार्च 1945 को अपने 14 जांबाजों के साथ अंग्रजों की सेना के खिलाफ लड़ते हुए प्राण न्योछावर कर दिए। वर्ष1929 से 1933 के बीच में क्रांतिकारी आंदोलन अपने चरम सीमा पर था । उत्तराखंड इसमें भी पीछे नहीं रहा। गढ़वाल क्षेत्र के भवानी सिंह, इंद्र सिंह और बच्चूलाल  ने वीर चंद्रशेखर आजाद और उनके सहयोगियों के साथ  काम किया। भवानी सिंह ने गडोदिया स्टोर डकैती में भाग लिया था । वे चंद्रशेखर चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में क्रांतिकारी दल को पिस्तौल की ट्रेनिंग देने के लिए दुगड्डा गढ़वाल लाए थे।  इंद्र सिंह ने 1933 में मद्रास बम कांड में भाग लिया।

 टिहरी गढ़वाल रियासत के लोगों ने भी स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। टिहरी के लोगों को तो इस रियासत को भारत संघ में विलय के लिए आंदोलन करना पड़ा था। इन स्वतंत्रता सेनानियों में  शहीद श्रीदेव सुमन का उल्लेख करना आवश्यक है।   टिहरी राज्य प्रजा मण्डल  के तहत आंदोलन करते हुए सुमन जी को  राजशाही की पुलिस ने 27 दिसम्बर, 1943 को इन्हें चम्बा में  गिरफ्तार कर लिया और 30 दिसम्बर को टिहरी जेल भिजवा दिया गया, जहां से इनका शव ही बाहर आया। 30 दिसम्बर, 1943 से 25 जुलाई, 1944 तक 209 दिन उन्होंने टिहरी की नारकीय जेल में बिताए। इससे पहले राजशाही ने काले वन कानूनों के खिलाफ आंदोलन कर रहे लोगों पर  30 मई 1930 में तिलाड़ी  के मैदान में   निहत्थी जनता पर गोलियां चलवा दी गई थी। इस गोलीकांड में 70 लोग मारे गए थे। इसे टिहरी का जालियांवाला बाग कांड भी कहा जाता है।  इसी तरह आजादी के बाद टिहरी रियासत को भारत संघ में विलय की मांग पर नागेन्द्र सकलानी और मोलूराम भरदारी को जान गंवानी पड़ी थी। इस संघर्ष में 11 जनवरी 1948 को ये दोनों ही शाही पुलिस की गोलियों का शिकार बन गए। लेकिन उनके बलिदान से टिहरी रियासत भारत संघ का अंग बन गई।

इससे पहले 1857 के गदर के समय काली कुमायुं के कालू मेहरा ने एक गुप्त संगठन- क्रांतिवीर- बनाया व अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन चलाया । इसमें उनके साथ  आनंद सिंह फड़तयाल, बिशन सिंह करायत आदि भी थे। हल्द्वानी में भी तब  विद्रोह हुआ था। इसके अलावा 1857 के   इस गदर में अंग्रेजों ने कई अनाम स्वतंत्रता सेनानियों को नैनीताल में फांसी पर लटका दिया था, जो अभिलेखों में फांसी गधेरे के नाम से दर्ज है। 

अंतत: इन सभी प्रयासों से  15 अगस्त  1947 को भारत स्वतंत्र हो गया। दोस्तों यह थी उत्तराखंड में स्वतंत्रता आंदोलन की गाथा। वीडियो में समय सीमा को देखते हुए प्रमुख घटनाओं को ही शामिल किया गया है। उत्तराखंड के सभी स्वतंत्रता सेनानियों के नाम लेना भी संभव न था। यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है।जै हिमालय, जै भारत।

 

 

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