77 साल 7 माह व 7 दिन आयु होने की प्रतीक्षा क्यों करते हैं नेवारों के बुजुर्ग ? -नेपाल के नेवार समाज का इतिहास

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परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति /नई दिल्ली

www.himalayilog.com /www.lakheraharish.com

दोस्तों मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश लखेड़ा, हिमालयी जातियों के इतिहास की श्रृंखला में इस बार नेपाल के प्राचीन समाज नेवार को लेकर जानकारी दे रहा  हूं। नेवार समाज की कुछ विशेषताएं हैं, जो की सभी समाजों के लिए अनुकरणीय हैं। नेवारों को लेकर जानकारी देने से पहले आप सभी से आग्रह है कि इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइबअवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र की संस्कृति, इतिहास, लोक, भाषा, सरोकारों आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं।

हिमालयी देश नेपाल का नेवार समुदाय सांस्कृतिक रूप से बहुत समृद्ध है। इनका गौरवशाली इतिहास रहा है। इनके मूल स्थान काठमांडू घाटी को ही कभी नेपाल कहा जाता था।  नेवार अपने परिवार के बुजुर्गों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, यह जानने से पहले उनके बारे में जानकारी दे देता हूं, ताकि मामला समझने में आसानी रहे। नेपाल में नेवार एक समाज है। जिस तरह से कुमायुंनी, गढ़वाली, हिमाचली, समाज हैं, उसी  तरह नेवार भी एक समाज है, जिसमें हिंदू व बौद्ध शामिल हैं। काठमांडू उपत्यका में  सदियों पहले रहने वाले लोगों ने मिलकर जो समाज बनाया, वही आज का नेवार समाज है।  माना जाता है कि इनमें 7० प्रतिशत आर्य नश्ल के तथा 3० प्रतिशत मंगोल नश्ल के लोग हैं। यह भी कहा जाता है कि सदियों पहले काठमांडू उपत्यका में   आए  खस, मगर, किरात आदि जातियों के लोग भी नेवार समाज में समा गए। यही कारण है कि खस, मगर, किरातों आदि के सरनेम भी नेवारों में मिलते हैं। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि नेवारों के पूर्वज लिच्छवी थे,  जबकि कुछ कहते हैं कि नेवारों की उत्पत्ति दक्षिण में नायर समाज से हुई। वे कर्नाटक राजा नान्यादेव के साथ नेपाल आए थे। यह भी कहा जाता है कि  नेवार आर्य, मंगोल और आस्ट्रेलियाई जनजातियों का मिश्रण हैं।  कुछ मानते हैं कि नेवार जनजाति नहीं हैं और एक नया समुदाय हैं, जो  भारतीय और तिब्बती मूल का मिश्रण है।

नेपाली के प्रसिद्ध इतिहास कार गुरुंग मानते हैं कि नेवार ही असली किरात हैं। इनकी भाषा को नेपाल भाषा कहा जाता है। नेपाल भाषा को भी कुछ लोग नेवारी कहते हैं। नेवार समुदाय से सम्बन्धित सभी चीजों को ‘नेवारी’ कहते हैं।

कहा जाता है कि नेपाल शब्द की  उत्पत्ति  नेवार से ही हुई है।  हालांकि इस मामले में विभन्न धारणाएं हैं। नेपाल शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम  महान विद्वान चाणक्य यानी  कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में किया। उस काल में बिहार में जो मगधी भाषा प्रचलित थी उसमें ‘र’ का उच्चारण नहीं होता था। सम्राट् अशोक के शिलालेखों में ‘राजा’ के स्थान पर ‘लाजा’ शब्द प्रयोग  हुआ है। अत: नेपार, नेबार, नेवार इस प्रकार विकास होने का अनुमान है। यह भी कहा जाता है कि ‘ने’ ऋषि तथा पाल (गुफा) मिलकर बना है। माना जाता है कि एक समय नेपाल की राजधानी काठमांडू ‘ने’ ऋषि का तपस्या स्थल था। तिब्बती भाषा में ‘ने’ का अर्थ ‘मध्य’ और ‘पा’ का अर्थ ‘देश’ होता है। तिब्बती लोग ‘नेपाल’ को ‘नेपा’ ही कहते हैं। नेपाल  और नेवार  शब्द की समानता के आधार पर डा. ग्रियर्सन और यंग एक ही मूल शब्द से दोनों की उत्पत्ति मानते हैं। जबकि टर्नर ने नेपाल, नेवार, अथवा नेवार, नेपाल दोनों स्थिति को स्वीकार किया है।

नेवार के इतिहास को लेकर भी बता देता हूं। एकीकरण से पहले काठमांडू घाटी को ही नेपाल कहा जाता था। माना जाता है की २५० ईसा पूर्व तक इस क्षेत्र में मौर्य साम्राज्य का प्रभाव रहा। इसके बाद ईसा की चौथी शताब्दी में यह क्षेत्र गुप्तवंश के अधीन हो गया। इस क्षेत्र में 5वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आकर वैशाली के लिच्छवियों ने राज्य की स्थापना की। 8वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लिच्छवि वंश का अस्त हो गया और सन् 879 से नेवार  युग का उदय हुआ। 11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में दक्षिण भारत से आए चालुक्य साम्राज्य का प्रभाव नेपाल के दक्षिणी भूभाग में रहा। चालुक्यों के प्रभाव में आकर उस समय राजाओं ने बौद्ध धर्म को छोड़कर हिन्दू धर्म ग्रहण कर लिया। इसके बाद 13वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में संस्कृत शब्द मल्ल  वंश का उदय होने लगा। 200 वर्ष में इन  मल्ल राजाओं ने शासन किया। ये मल्ल राजा डोटी राज्य के खस मल्ल राजाओं से अलग थे। 14वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देश का बहुत ज्यादा भाग एकीकृत राज्य के अधीन में आ गया। लेकिन यह एकीकरण कम समय तक ही टिक सका। बाद में काठमांडू घाटी में नेवारों के तीन राज्य स्थापित हो गए। यानी  1482 में यह राज्य तीन भाग में विभाजित हो गया – कान्तिपुर, ललितपुर और भक्तपुर – जिसके बीच मे शताव्दियौं तक मेल नही हो सका। बाद में गोरखा राजा पृथ्वी नारायण शाह ने 1765 में नेपाल का एकीकरण किया। इसके साथ ही नेवार भी गोरखा साम्राज्य का हिस्सा बन गए।

 नेवार समुदाय में जातीय, नस्लीय, जाति और धार्मिक विविधता के विभिन्न पहलू शामिल हैं। वे लिच्छवी, कोसल, और मल्ल  जैसी इंडो-आर्यन जनजातियां संबंधित भारतीय महाजनपद यानी वज्जी, कोसल, और मल्ल के लिच्छवियों के साथ ही यहां अलग-अलग समय पर पहुंचे लोग नेवार समाज में समाहित होते रहे। इनमें कन्याकुब्ज, बंगाली, राजस्थानी, असमिया, मैथिली, भी शामिल हैं। ये लोग सदियों पहले नेपाल चले गए थे। इन जातियों ने अपनी वैदिक सनातन संस्कृति को बनाए रखा। ये सभी अंततः अपनी भाषा और रीति-रिवाजों को अपनाकर स्थानीय आबादी में विलय होते गए और इस तरह इन सभी ने नेवार सभ्यता को जन्म दिया। अधिकतर नेवारी हिंदू हैं। कुछ बौद्ध भी हैं। यह भी कह सकते हैं कि यहां हिंदू व बौद्ध एक दूसरे के साथ समाहित हैं।

अब नेवार समाज की सबसे बड़ी विशेषता का उल्लेख कर रहा हूं। इसे भारत व संसार भर के लोगों को अपनाना चाहिए जो कि अपने बुजुर्गों को वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं। नेवारी समाज के लोगों की जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है,घर- परिवार स समाज में  उनका सम्मान उतना ही बढ़ता रहता है। नेपाल में नेवारों के अलावा खस, मगर, किरात आदि सभी समाजों में अपने बुजुर्गों को सम्मान देने की प्रथा आज भी जिंदा है। परंतु नेवार में सबसे अधिक है। भारत के हिमालयी क्षेत्रों में भी यही प्रथा थी, परंतु भारतीय अन्य समाजों की संगत के कारण उनमें भी अपने बुजुर्गों को बेसहारा छोड़ने का  दुर्गण आ गया है। नेवार में वृद्ध होने पर उन्हें सम्मानित करने  की प्रथा है। इसे जुंको कहते हैं। नेपाल में माना जाता है की मनुष्य कोलंबी उम्र इसलिए भिलती है कि उसने ज्यादा पुण्य किए थे। इसलिए उस बुजुर्गों के अच्छे स्वास्थ्य और लंबे जीवन की कामना के उद्देश्य से उनसे आशीर्वाद मांगा जाता है। नेवारी सांस्कृतिक मान्यताओं के अनुसार मनुष्य को इतना लंबा जीवन जीने के बाद देवता के समान माना जाता है और इसी अवसर पर यह कार्यक्रम आयोजित किया जाता है।

इसके लिए कई कार्यक्रम होते हैं। पहला जुंको यानी भीम रथरोहण। इसके तहत व्यक्ति की आयु 77 साल, 7 महीने, 7 दिन, 7 घंटे, 7 दिन पूरा होने पर उसका सम्मान किया जाता है। दूसरा जुंको को चंद्र रथरोहण कहा जाता है। इसमें 82 वर्ष 2 महीने, 2 दिन, 2 घंटे  पूरा होने पर  एक लाख दीपक जलाए जाते हैं।  तीसरा जुंको यानी देव रथरोहन है। आयु 88 साल, 8 महीने, 8 दिन, 8 घंटे  होने पर बुजुर्ग को रथयात्रा के बाद खिड़की से घर के भीतर  लाया जाता है। चौथा जुंको को दिव्या रथरोहन कहते हैं।  इसमें आयु 99 साल, 9 महीने, 9 दिन, 9 घंटे पूरा करने पर बुजुर्ग को एक नए घ्याम्पो में डाल कर ग्‍याम्‍पो की पूजा की जाती है। फिर दोबारा बच्चा होने का अहसास होने पर जार को तोड़कर उन्हें बाहर निकाल लिया जाता है। इस समय उन्हें पहिएदार रथ में बिठाकर सवारी कराई जात है। उनके  नाती-पोते रथ खींचते हैं और बेटे-बहू लावा बिखेरते हैं। इस समय के रथ को दिव्यरथ कहा जाता है।पांचवें जुंको को महादिव्य रथरोहण  कहते हैं।  इसमें आयु: 108 वर्ष, 8 महीने, 8 दिन, 8 घंटे हो ने पर  समय के रथ को महादिव्य रथ के रूप में रखा गया है, जिससे कामना की जाती है कि अष्ट पर कदम रखते ही कुछ बुरा न हो जाए। अपने बुजुर्गों का इस सरह का सम्मान शायद ही अन्य किसी समाज में हो। नेपाल के अन्य समाजों में भी बुजुगों के पांव छूकर उनका आशीर्वाद लेने की परंपरा आज भी है।उत्तराखंड में बड़ों का आशीर्वाद लेने यह प्रथा रही है, लेकिन अब तेजी से लुप्त हो रही है।

दोस्तों यह था नेवार समाज का इतहास और उनकी विशेष परंपरा। अगली कड़ियों में इसी तरह के सरोकारों को सामने रखा जाएगा।  यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है।जै हिमालय, जै भारत।

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