नेपाल के पहले किराती राजा यलंबर थे महाबली भीम के पौत्र बर्बरीक यानी  बाबा श्याम खाटू

शोध और आलेख- डा हरीश चंद्र लखेड़ा  /हिमालयीलोग की प्रस्तुति/नयी दिल्ली

बाबा श्यामखाटू महाराज के नाम तो आपने सुना ही होगा। राजस्थान के सीकर जिले में बाबा श्याम का विश्व विख्यात मंदिर है। महाभारत के योद्धा बर्बरीक ही आज बाबा श्याम खाटू  के नाम से पूजे जाते हैं। वे महाभारत के पांडुपुत्र महाबली भीम और हिमालय की बेटी हिडिंबा के पौत्र और घटोत्कच के पुत्र थे। बर्बरीक नेपाल में यलंबर के नाम से जाने जाते हैं, जो कि नेपाल के प्राचीन किरात साम्राज्य के संस्थापक हैं। नेपाल में वे आकाश भैरव के नाम से भी पूजे जाते हैं। हिमाचल प्रदेश में बर्बरीक भगवान कमरुनाग और गुजरात में बलियादेव माने जाते हैं। बलियादेव को महाभारत युद्ध से पहले उनके दादा यानी भीम की की जीत सुनिश्चित करने के लिए बलि देने के रूप में पूजा जाता है। आज इन्ही महान योद्धा को लेकर यह जानकारी दे रहा हूं जो कि नेपाल के प्रथम किरात शासक हैं।

सबसे पहले योद्धा बर्बरीक को लेकर जानकारी दे रहा हूं, उसके बाद  नेपाल  के महाराजा यलंबर को लेकर बताऊंगा। विश्व विख्यात भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलविद आर्यभट के अनुसार महाभारत युद्ध 28 फ़रवरी 3102 ईसा पूर्व में हुआ था। यानी आज से लगभग पांच हजार साल पहले यह युद्ध लड्रा गया था। हालांकि कई लोग इस तिथि को  19०० ईसवी पूर्व  भी मानते है। यह युद्ध हस्तिनापुर के राजवंश के चचेरे भाइयों, कौरवों व पांडवों के बीच हुआ था। दूसरे पांडु पुत्र भीम और उनकी पत्नी हिडिंबा से घटोत्चक हुए। वे हिमालयी क्षेत्र की यमुना घाटी के शासक थे। घटोत्कच और नाग कन्या अहिलावती के पुत्र बर्बरीक थे। कई जगह बर्बरीक की मां को असम निवासी मुर की पुत्री कामकंटकटा भी बताया गया है।  जन्म से ही बर्बराकार यानी घुंघराले केश होने से इनका नाम बर्बरीक रखा गया।  भगवान श्री कृष्ण की सलाह पर उन्होंने मां दुर्गा की आराधना की और  आराधना में विघ्न डालने वाले पलासी आदि दैत्यों का संहार किया। एक बार वे अपने पितामह भीम से भी भिड़ गए थे। स्कंद पुराण में उन्हें बरबरीका व बलियादेव कहा गया है।  वे हमेशा हारने वाले पक्ष से लड़ने के अपने सिद्धांत से बंधे हुए थे।

बर्बरीक बाल्यकाल से ही बहुत वीर और महान यौद्धा थे। उन्होंने युद्ध कला अपनी मां  से सीखी थी। भगवान शिव की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और तीन अभेद्य बाण प्राप्त कर तीन ‘बाणधारी’ नाम प्राप्त किया। अग्नि देव ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया, जो कि उन्हें तीनो लोकों में विजयी बनाने में समर्थ था। महाभारत युद्ध के समय बर्बरीक ने भी इस युद्ध में शामिल होने की  इच्छा जताई।  उनकी मां ने आशीर्वाद देते हुए उनसे  हारे हुए पक्ष का साथ देने का वचन ले लिया। वे अपने नीले रंग के घोड़े पर सवार होकर तीन बाण और धनुष के साथ कुरूक्षेत्र की रणभूमि के पहुंच गए।

पौराणिक कथा के अनुसार महाभारत युद्ध शुरू होने से पहले श्रीकृष्ण सभी योद्धाओं की युद्ध क्षमता को आंकना चाहते थे । इसलिए उन्होंने सभी से एक ही सवाल पूछा कि वे अकेले अपने दम पर महाभारत युद्ध को कितने दिन में समाप्त कर सकते हैं।  भीम ने जवाब दिया कि वह 20 दिन में इस युद्ध को समाप्त कर सकते हैं।  गुरु द्रोणाचार्य ने कहा कि युद्ध को समाप्त करने में उन्हें 25 दिन लगेंगे। अंगराज कर्ण ने  24 दिन और अर्जुन ने 28 दिन बताया। भगवान श्रीकृष्ण ने जब यही सवाल घटोत्कच के पुत्र और बलशाली भीम के पौत्र बर्बरीक से पूछा तो जवाब सुनकर भगवान श्रीकृष्ण चौंक गए।  बर्बरीक ने कहा कि वह महज कुछ ही पलों में युद्ध की दशा और दिशा तय कर सकते हैं।क्योंकि उसके पास तीन विशेष बाण हैं।

एक दिन भगवान श्री कृष्ण ब्राह्मण ने बर्बरीक से मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने के लिए उसका भेद  जानने का प्रयास  किया। बर्बरीक ने  कहा कि उसका मात्र एक बाण शत्रु सेना को परास्त करने के लिए बहुत है।  एक बार चलाने के बाद  बाण वापस तरकस में ही आएगा। यदि तीनों बाणों को प्रयोग में लिया गया तो तीनों लोकों में हाहाकार मच जाएगा। इस पर श्रीकृष्ण ने उन्हें चुनौती दी कि इस पीपल के पेड़ के सभी पत्रों को छेदकर दिखलाओ, जिसके नीचे वे दोनों खड़े थे। बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तुणीर से एक बाण निकाला और ईश्वर को स्मरण कर बाण पेड़ के पत्तों की ओर चलाया। इससे  पहले श्रीकृष्ण ने एक पत्ता अपने पांव के नीचे दबा दिया था। तीर ने क्षण भर में पेड़ के सभी पत्तों को भेद दिया और श्रीकृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा। क्योंकि एक पत्ता उन्होंने अपने पैर के नीचे छुपा लिया था। बर्बरीक ने कहा कि आप अपने पैर को हटा लीजिए अन्यथा वह बाण उनके पैर को चोट पहुंचा देगा। श्रीकृष्ण ने  बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस ओर से सम्मिलित होगा तो बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन दोहराया कि वह युद्ध में उस ओर से भाग लेगा जिस ओर की सेना निर्बल हो और हार की ओर अग्रसर हो। श्रीकृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की ही निश्चित है और इस पर अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम कौरवों के पक्ष में ही होगा। इसलिए  भगवान श्रीकृष्ण को यह भय सताने लगा कि अगर बर्बरीक युद्ध में शामिल हुए और कौरवों की तरफ से यदि युद्ध किया तो पांडवों की हार सुनिश्चित है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को युद्ध से दूर रखने की युक्ति निकाली।

एक दिन ब्राह्मण वेश में श्रीकृष्ण ने बर्बरीक से दान की अभिलाषा व्यक्त की, इस पर वीर बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया कि अगर वो उनकी अभिलाषा पूर्ण करने में समर्थ होगा तो अवश्य करेगा। श्रीकृष्ण ने उनसे शीश का दान मांगा। बर्बरीक क्षण भर के लिए चौंक गया, परन्तु उसने अपने वचन की दृढ़ता जतायी।  बर्बरीक ने ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप में आने का आग्रह किया।  श्रीकृष्ण को सामने देख बर्बरीक ने उनसे अपना विराट रूप दिखाने की अभिलाषा व्यक्त की।  भगवान ने उन्हें अपना विराट रूप दिखाया। श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पहले युद्धभूमि की पूजा के लिए एक वीरवर क्षत्रिए के शीश के दान की आवश्यकता होती है, उन्होंने बर्बरीक को युद्ध में सबसे वीर की उपाधि से अलंकृत करते हुए उनसे शीश दान में मांग लिया। बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक युद्ध देखना चाहता है। इस पर  श्रीकृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। और अपना शीश काटकर दान कर दिया। उनका सिर युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर रखा गया, जहां से बर्बरीक महाभारत का युद्ध देखते रहे। इस तरह बर्बरीक युद्ध न लड़कर भी पांडवों की जीत का कारण बन गए।

युद्ध की समाप्ति पर पांडवों में ही आपस में चर्चा  होने लगी कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है, इस पर श्रीकृष्ण ने उन्हें सुझाव दिया कि बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है, अतएव उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है।  सभी इस बात से सहमत हो गये। बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि श्रीकृष्ण ही युद्ध में विजय प्राप्त कराने में सबसे महान कार्य किया है। उनकी शिक्षा, उनकी उपस्थिति, उनकी युद्धनीति ही निर्णायक थी। उन्हें युद्धभूमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखायी दे रहा था जो कि शत्रु सेना को काट रहा था। यह रूप उनका बाबा श्याम खाटू के रूप में पूजा जाता है।

अब नेपाल के महान किरात सम्राट यलंबर पर आते हैं। आज नेपाल में किरात जाति के लोगों में  लिम्बु, राई, सुनुवार व याक्खा प्रमुख हैं। यलंबर नेपाल के प्रथम किरात राजा थे। उनको महाभारत में बर्बरीक नाम से जाना जाता है। उन्होंने गोपाल वंश को पराजित कर लगभग १५००  ईसा पूर्व में काठमांडू उपत्यका में किरात साम्राज्य की स्थापना की थी। बर्बरीक यानी यलंबर का किरात साम्राज्य पश्चिम में त्रिशूली नदी और पूर्व में तिस्ता नदी तक फैला हुआ था। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शिव शिकारी कितेश्वर या किरातों के भगवान के रूप में अर्जुन के सामने पश्चिम सिक्किम के लेगशिप में स्थित उसी स्थान पर प्रकट हुए हैं, जहां प्राचीन किरतेश्वर मंदिर है।  किरात जाति के लोग भारत, नेपाल से लेकर बांग्लादेश, म्यांमार और आगे तक पाये जाते हैं। किरातों को किराती, किररांती, किरांत भी कहा जाता है। यह एक तिब्बती-बर्मी जातीय समूह हैं।  किरात लोग  नेपाल के पूर्वी हिमालयी क्षेत्र ओर भारत के सिक्किम राज्य और पश्चिम बंगाल के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र, दार्जिलिंग और कलिम्पोंग जिलों में रहते है । उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के अधिकतर किरात अब खस व आर्य जातियों में समाहित हो चुके हैं। प्राचीन संस्कृत साहित्य में किरातों का संबंध पहाड़ों और गुफ़ाओं से बताया गया है और उनकी मुख्य जीविका आखेट बताई गई है। यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में किरातों को पर्वत और कन्दराओं का निवासी बताया गया है। महाभारत व वाजसनेयीसंहिता  और तैत्तिरीय ब्राह्मण में भी किरातों का उल्लेख है।  वाल्मीकि रामायण में किरात नारियों के तीखे जूड़ों का वर्णन मिलता है। भगवान श्रीराम के वनवास जाने के बाद उनके गुरू वशिष्ठ जब आज के टिहरी गढ़वाल के हिंदाव क्षेत्र में रहने गए तो वहां किरात ही रहते थे। महाभारत में अर्जुन का भगवान शिव से किरात रूप में युद्ध  हुआ था। संस्कृत काव्य में महाकवि कालिदास ने उत्तराखंड के किरातों का वर्णन शायद किया है। प्लिनी, टॉलमी और मेगस्थनीज़ के लेखों में भी किरातों के विषय में कई उल्लेख हैं। टॉलमी ने इन्हें ‘किरादिया’ लिखा है और भारत में इनकी विस्तृत बस्तियों का उल्लेख किया है। खारवेल के प्रसिद्ध अभिलेखों में चीन और किरात दोनों का एकत्र उल्लेख है.

किरातों  की  32 राजाओं ने काठमांडू घाटी पर लगभग 1225 वर्षों तक शासन किया। नेपाल के इतिहास की शुरुआत प्रमाणिक तौर पर किरात  काल से ही मानी जाती है। किरात काल से भी पहले के इतिहास के ठोस प्रमाण नहीं मिल पाए हैं।  काठमांडू में पाये गये नि‍योलि‍थि‍क उपकरणों के अनुसार नेपाल में मानव का आगमन कम से कम 9हजार वर्ष पहले हो चुका था, लेकिन किरात जाति के लोग कम से कम 25०० वर्ष पहले से वहां रहते आ रहे हैं।

अब  नेपाल में बर्बरीक के आकाश भैरव रूप के बारे में बताता हूं। आकाश भैरव को नेपाली में आजु, साजू भी कहा जाता है। अजू का अर्थ नेपाल में पहला राजा है। काठमांडू के  इंद्रा चौक में जो आकाश भैरब, का मंदिर है, उसे लेकर कहा जाता है कि वह लगभग 3100 से 3500 साल पहले नेपाल के पहले किरंती राजा यलंबर का महल था। आकाश भैरव के आसपास के क्षेत्र को येन के रूप में जाना जाता है जो नेपाल के ने का प्रतीक है। किरंती भाषा में ने का मतलब मिडलैंड है। आकाश भैरव का सिर काठमांडू में कई सौ साल पहले खोदा गया था। यहां हर साल एक महोत्सव होता है। मान्यता है कि आकाश भैरव यानी किराती राजा यलंबर को तांत्रिक पूजा के माध्यम से शक्तियां प्राप्त थीं। महाभारत के युद्ध के दौरान राजा यलंबर वहां भैरव के भेष में हारने वाले दल की मदद के लिए युद्ध के मैदान में गए। जब भगवान कृष्ण ने इसके बारे में सुना, तो उन्होंने भैरव की क्षमता का परीक्षण करने की कोशिश की। श्री कृष्ण को लगा कि  यदि भैरव को हारने वाले पक्ष में शामिल होने की अनुमति दी गई, तो युद्ध तब तक जारी रहेगा जब तक कि दोनों पक्षों का विनाश नहीं हो जाएगा। श्री कृष्ण ने भैरब से पूछा कि क्या वे  उपहार के रूप में कुछ दे सकते हैं। भैरव ने सहमति व्यक्त कर दी। श्रीकृष्ण ने भैरब से उनका सिर मांग लिया। यलंबर का कटा सिर आकाश मार्ग से काठमांडू पहुंचा गया। इसलिए किरात राजा यलंबर को आकाश देवता या आकाश भैरव कहा जाने लगा। वे बौद्ध देवता हैं। आकाश भैरव को बौद्ध प्रतिमा में एक बड़े नीले सिर के साथ एक भयंकर चेहरे, विशाल चांदी की आंखों और खोपड़ी और नागों के मुकुट के साथ चित्रित किया गया है । देवता का सिर एक चांदी के सिंहासन पर रहता है जिसे सिंहों द्वारा ले जाया जाता है, उनके दोनों ओर भीमसेन यानी भीम और भद्रकाली भी होती हैं। मूर्ति का चेहरा उस मुखौटे का प्रतिनिधित्व करता है, जिसे राजा यलंबर ने कुरुक्षेत्र के रास्ते में पहना था।भगवान आकाश भैरव नेपाल में किसानों के देवता भी हैं। हिंदी उन्हें ब्रह्मा के रूप में पूजते हैं। यहां पर ही आठ दिन की इंद्र जात्रा होती है।

तो दोस्तों, यह साफ हो गया है कि नेपाल का पहला किरात साम्राज्य हस्तिनापुर के पांडव महाबली भीम के पौत्र बर्बरीक यानी यलंबर ने स्थापित किया था। यह गाथा आपको कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। आपके पास कोई जानकारी हो तो वह भी शेयर करें। यह चैनल हिमालयी लोगों की संस्कृति, इतिहास, लोक, सरोकार आदि को देश-दुनिया के सामने रखने का प्रयास कर रहा है। आपका सहयोग चाहिए। इसलिए हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलाना। इस वीडियो के टाइटल सांग को भी सुन लेना। यह मेरा ही लिखा है। इसी चैनल में है। जै हिमालय- जै भारत।

 

 

 

नेपाल के सभी ३२ किरात राजाओं की सूची इस तरह है।

१-राजा श्री यलम्बर – ९० वर्ष,।

  1. राजा श्री पेलं – ८१ वर्ष,
  2. राजा श्री मेलं – ८९ वर्ष,
  3. राजा श्री चंमिं – ४२ वर्ष,
  4. राजा श्री धस्कं – ३७ वर्ष,
  5. राजा श्री वलंच – ३१ वर्ष ६ महीना,
  6. राजा श्री हुतिं – ४० वर्ष ८ महीना,
  7. राजा श्री हुरमा – ५० वर्ष,
  8. राजा श्री तुस्के – ४१ वर्ष ८ महीना,
  9. राजा श्री प्रसफुं – ३८ वर्ष ६ महीना,
  10. राजा श्री पवः – ४६ वर्ष,
  11. राजा श्री दास्ती – ४० वर्ष,
  12. राजा श्री चम्ब – ७१ वर्ष,
  13. राजा श्री कंकं – ५४ वर्ष,
  14. राजा श्री स्वनन्द – ४० वर्ष ६ महीना,
  15. राजा श्री फुकों – ५८ वर्ष,
  16. राजा श्री शिंघु – ४९ वर्ष ६ महीना,
  17. राजा श्री जुलम् – ७३ वर्ष ३ महीना,
  18. राजा श्री लुकं – ४० वर्ष,
  19. राजा श्री थोरम् – ७१ वर्ष,
  20. राजा श्री थुको – ८३ वर्ष,
  21. राजा श्री वर्म्म – ७३ वर्ष ६ महीना,
  22. राजा श्री गुंजं ७२ वर्ष ७ महीना,
  23. राजा श्री पुस्क – ८१ वर्ष,
  24. राजा श्री त्यपमि – ५४ वर्ष,
  25. राजा श्री मुगमम् – ५८ वर्ष,
  26. राजा श्री शसरू – ६३ वर्ष,
  27. राजा श्री गंणं – ७४ वर्ष,
  28. राजा श्री खिम्बुं – ७६ वर्ष,
  29. राजा श्री गिरीजं – ८१ वर्ष,
  30. राजा श्री खुरांज – ७८ वर्ष,
  31. राजा श्री गस्ती – ८५ वर्ष

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