उत्तराखंड की बद्वाण पूजा- नवव्याही गाय के दूध का टैक्स क्यों लेते थे बौद्ध गुरु

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परिकल्पना- डा. हरीश चंद्र लखेड़ा /हिमालयीलोग की प्रस्तुति/नयी दिल्ली

दोस्तों, इस बार आपके लिए उत्तराखंड की प्राचीन परंपरा को लेकर नयी जानकारी लेकर आया हूं। उत्तराखंड में गाय के बछड़े के जन्म के 11  दिन बाद पानी के सिमांद (स्रोत) में पूजा की जाती है। उस पूजा के बाद ही  गाय के दूध को चाय, दही, छाछ आदि बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है। गढ़वाल में इसे बध्वाण और कुमायुं में बोधार कहा जाता है। शहरों में जन्मी, पली व बढ़ी पीढ़ी शायद ही इस बारे में जानती होगी, लेकिन गांवों में सदियों से चल रही यह परंपरा आज भी जारी है। आज आपको बता रहा हूं कि यह पूजा कब से व कैसे शुरू हुई तथा इसमें कैसे परिवर्तन आया। इसका नाम बौद्धों के नाम पर क्यों पड़ा था।

यह पूजा उसी तरह महत्वपूर्ण है, जिस तरह से हिंदू धर्म में बच्चों का नामकरण संस्कार होता है। हिंदुओं के 16 संस्कारों में नामकरण-संस्कार अत्यंत महत्वपूर्ण  संस्कार है। अधिकतर क्षेत्रों में यह संस्कार बच्चे के जन्म लेने के  ११वें दिन किया जाता है। उस दिन विधिवत पूजा-पाठ करके नवजात शिशु का नाम रखा जाता है। पुरोहित शिशु के जन्म-नक्षत्र, ग्रह, राशि आदि के अनुसार शिशु का नामकरण करते हैं। इसी तरह  उत्तराखंड में गाय के बछड़े के जन्म के 11वें दिन पूजा की जाती है। उस दिन तक गाय के दूध को छोटे बच्चों को ही पीने को दिया जाता है। 11वें दिन पूजा के बाद ही दूध को घर के अन्य लोग प्रयोग कर सकते हैं। इसके पीछे एक कारण यह भी रहा है कि 11 दिन तक नवजात बछड़े को भरपूर दूध मिल सके। उसके बाद वह चारा भी खाने लगता है। यानी इस अवधि तक गाय का दूध कम मात्रा में ही निकाला जाता है।

इस पूजा के अलावा उत्तराखंड में असूज यानि अश्विन के माह में गाय के दूध को लेकर पूजा की जाती है। इसमें पुरोहित को बुलाकर लगभग उसी तरह पूजा की जाती है, जस तरह से बध्वाण में की जात है। इसके बाद गाय के दूध को परिवार के अलावा दूसरे समाजों के लोगों को दिया जा सकता है। इसी तरह की पूजा मथुरा क्षेत्र में भी है। वहां भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि को बछ बारस का पर्व मनाया जाता है।  पौराणिक काल से चल रही इस प्रथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के बाद माता यशोदा ने इसी दिन गौमाता का दर्शन और पूजन किया था।

उत्तराखंड में बध्वाण या बौधार की यह परंपरा सदियों पुरानी है।माना जाता है कि कुलिंदों शासन के अंतिम काल में यह पूजा प्रारंभ हुई और कत्यूरी के समय में इसका प्रचार हुआ। कुलिंदों-कत्यूरियों के शासन काल में जब यहां बौद्धों का यहां प्रचार-प्रसार हुआ तो  बौद्धों मठों के महंत ने इसे कर यानी टैक्स के तौर पर लागू कर दिया। कोटद्वार निवासी इतिहासकार  डा. रणवीर सिंह चौहान कहते हैं कि बध्वाण वास्तव में बौद्धों का टैक्स था।इसे बौद्ध मठों के गुरुओं के लिए आम जनता देती थी। अब में जब बैद्ध धर्म उत्तराखंड से गायब हो गया तो उनकी जगह भगवान विष्णु की पूजा होने लगी, लेकिन नाम बध्वाण ही रह गया। हालांकि आचार्य डा. गोविंद बल्लभ जोशी कहते हैं कि यह परंपरा पौराणिक काल से है। महान गणितज्ञ बौधायन के नाम पर ही यह प्रथा हो सकती है। हालांकि इसके कोई प्रमाण नहीं हैं कि यह प्रथा ऋषि बौधायन के नाम पर शुरू हुई।

बौद्ध गुरू को दिया जाने वाले इस टैक्स के तहत  गाय के बच्चे के जन्म होने पर उसकी 11 दिन का दूध टैक्स के तौर पर दिया जाता था। इसके बाद ही आम जनता उसे अपनेलिए  प्रयोग कर सकती थी। बौद्धों के पतन के बाद उस दूध को छोटे बच्चों को दया जाने लगा, जिनका यज्ञोपवीत सस्कार न हुआ हो। अर्थात मुंडून किया गया हो, जन्म से आए बाल काटे न गए  हैं। इस संस्कार में उसका मुंडन करके जनेऊ पहनाया जाता है।

बध्वाण पूजा के तहत गाय के बछड़ा जन्मने के 11वें दिन गृहणी घर  को गोबर- मिट्टी से लीपती है। नहाने के बाद गाय का दूध निकालकर कुछ दूध पूजा के लिए रखा जाता है। बाकी की खीर बनाई जात है। पुरोहित या गृह स्वामी या परिजन पानी के स्रोत में जाकर पूजा करता है,उस गाय के दूध को भगवान  विष्णु को अर्पित करता है। उसके बाद  घर में मिलकर खीर खाई जाती है। उसदिन के बाद ही  उस गाय का दूध अन्य काम के लिए उपयोग किया जाता है। कुमायुं में इसे बोधार कहते हैं। वहां भी उस गाय के दूध को छोटे बच्चों को ही दिया जाता है जिनका यज्ञोपवीत संस्कारी हुआ हो।

प्रसिद्ध इतिहासकार डा. शिवप्रसाद डबराल अपनी पुस्तक – कुलिंद जनपद का प्राचीन इतिहास -दो में लिखते हैं कि  बौद्ध मत के प्रचारकों ने आरंभ से ही उत्तराखंड पर ध्यान दिया था। स्वयं भगवान बुद्ध उत्तरांखंड के दक्षिण में गंगा जी के तट पर स्थित उशीरध्वज पर्वत तक आए थे।  उसीरध्वज को कनखल के पास उशीरगिरि यानी चंडी की पहाड़ी माना जाता है। इसे अहोगंग भी कहते हैं। इसलिए यह भूमि भगवान बुद्ध के समय से ही बौद्धों के लिए पुण्य भूमि बन गई थी।  दिव्यावदान के अनुसार भगवान बुद्ध इस जनपद के सारे भाबर प्रदेश को पार करके उसके धुर दक्षिण-पश्चिम कोने पर स्थित स्त्रुघ्न नगर भी पहुंचे थे । यहां उन्होंने धर्मोदश दिया था। सातवीं सदी में चीनी यात्री युवान चंग ने भी इसका उल्लेख किया है।  उशीरध्वज  पर्वत पर बौद्धमत का बहुत का प्रभावशाली केंद्र स्थापित हो गया था।

 

इतिहास गवाह है कि बाद में बौद्यों ने गंगा के आसपास के हिंदुओं के ऋषियों के पुराने आश्रमों को ध्वस्त कर दया था। इनमें कोटद्वार के पास कण्व आश्रम भी शामिल है। उस क्षेत्र में बौद्धों के मठ बन गए थे। विक्रम पूर्व पांचवी, चौथी शताब्दी में विभिन्न मतों का जनता उत्सुकता से स्वागत करती थी । भिक्षु संघ केकिसी भी मत के भिक्षु को भोजन देना बड़े गौरव का कार्य समझा जाता था । कभी-कभी तो उनको भोजन देने के लिए कई दिन तक इंतजार करना पड़ता था। लेकिन बाद में बौद्ध मठों को लेकरलोगों का उत्साह कम होने लगा। इसका कारण डा. डबराल लिखते हैं कि इन मठों में आरामदेह जीवन होने से अपराधी प्रवृति के लोग भी बड़ी संख्या में शामिल होने लगे थे। अपराधी, डकैत, चोर भी भिक्षु संघों में शामिल होने लगे थे। इनके शामिल होने पर मठ के प्रमुख भिक्षु चुप ही रहते थे। इससे बौद्धों के प्रति जनता में सम्मान कम होने लगा था। यही कारण है कि जब आदि शंकराचार्य उत्तराखंड आए तो बौद्ध धर्म गायब हो गया। बाकी रही सही कसर नाथ संप्रदाय ने पूर कर दी। नाथों- जोगियों के चिमटों से बचे-खुचे बौद्ध तिब्बत की ओर पलायपन कर गए।

इस तरह आदि शंकराचार्य के कारण पूरे भारत की तरह उत्तराखंड से भी बौद्ध धर्म गायब होने हो गया और उसके बाद उत्तराखंड में सनातन धर्म लौटने लगा। गाय के पूजा में भगवान विष्णु लौट आए। बौद्ध गुरु को टैक्स के तौर पर दिया जाने वाला दूध अब छोटे बच्चों को मिलने  लगा था। हालांकि नाम बद्वाण या बौधार ही रह गया।

तो दोस्तों,यह थी बध्वाण और बोधार की गाथा। आपको कैसी लगी, अवश्य बताएं। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। जै हिमालय-जै भारत

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