गरमी का मौसम आ चुका है और अब मैदानों से भारी भीड़ पहाड़ों की ओर जाने लगेगी    । हर साल लगभग पांच करोड़ लोग हिमालयी राज्यों मेंं पर्यटन व धर्माटन के लिए जाती है।
अब  हम सभी का कर्तव्य  है कि देश के साथ ही हिमालय के सरोकारों की भी चिंता करें। हिमालय  भीो पर्यावरण मुक्त बनाएं और हिमालयी लोगों के जीवन को खुशहाल बनाने के लिए काम करने का संकल्प लें। हिमालयी लोग इसके देव भूमि होने का भ्रम पाले रहते हैं। लेकिन इस कठिन जीवन को खुशहाल बनाने के लिए हमें ऐसे उपाय करने होंगे कि भावी पीढिय़ां को शहरों को पलायन न करना पड़े।
आप को पता ही है कि  लगातार विभिन्न अध्ययनों में कहा जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन के खतरों और ग्रीन हाउस गैसों के कारण हिमालयी ग्लेशियर खतरे में हैं। ग्लेशियर खत्म होने प गंगा-यमुना भी नहीं बचेंगी। फिर हम भी कहां बचेंगे। जबकि हिमालय का सौंदर्य प्राकृतिक और मंत्रमुग्ध कर देने वाला है।  इसका अनूठा रूप ऐतिहासिक और पौराणिक गाथाओं में भी मिलता है। पूरी हिमालय शृंखला कुछ न कुछ विशिष्टता लिए हुए है। बड़ी-बड़ी बफीर्ली चोटियां, भांति-भांति के फूल, नदियों का शोर और अनोखे जंगल इसे अनमोल बना देते हैं। इसकी विशालता जीवन की विराटता को व्यक्त करती है। इसी हिमालय से झेलम, चिनाव, रावी, व्यास, सतलुज, गंगा, यमुना, अलकनंदा जैसी कई नदियां और झीलें निकलती हैं, जो समूचे क्षेत्र में जलापूर्ति करती हैं और ऊर्जा उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जलवायु परिवर्तन का हिमालयी क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र और सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इस दिशा में अध्ययन किए जा रहे हैं और परिणाम आने पर ही इसकी स्पष्ट व्याख्या की जा सकेगी। यदि हम विश्व के पूरे परिदृश्य पर नजर डालें, तो दुनिया में 17 लाख 50 हजार प्रजातियां ज्ञात हैं। वहीं भारत में 46,610 पादप प्रजातियां हैं। इनमें से 3,900 का भोजन, 7,500 का औषधीय और 400 का चारे के लिए उपयोग होता है। हिमालयी क्षेत्र में 10,000 पादप प्रजातियां, 1,000 चिडिय़ा प्रजातियां, 816 वृक्ष प्रजातियां, 675 जंगली फल और 1748 औषधीय पौधे पाए जाते हैं।
जैव विविधता का चक्र ही पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करते हैं। ये पादप ही हमें भोजन, वस्त्र और आवास निर्माण की वस्तुएं प्रदान करते हैं। विश्व में अब तक 384 पादप प्रजातियों को समाप्त और 19,078 को दुर्लभ माना गया है। ऐसे में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से जहां प्रजातियां खत्म हो सकती हैं, वहीं बांज के स्थान पर चीड़ का पहुंच जाना भी हिमालयी क्षेत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते मानसून में परिवर्तन आ रहा है। इसी क्रम में इस वर्ष उत्तराखंड में हुई भीषण बारिश ने विगत दस वर्षों का रिकार्ड तोड़ दिया, जबकि प्रदेश के तापमान में लगातार बढ़ोत्तरी महसूस की जा रही है। नतीजतन काफल और बुरांश जैसे पौधे समय से पहले ही फल और फूल देने लगे हैं। बर्फ न गिरने से सेब और आलू की फसलें भी बुरी तरह प्रभावित हुई हैं।
वर्ष 2012 में भारी बरसात और भूस्खलन से उत्तराखंड में जानमाल का भारी नुकसान हुआ है। उत्तराखंड में बादल फटने की घटनाएं आम हो चुकी हैं। 2007 में आईपीसीसी की रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले 100 वर्षों के दौरान औसत तापमान में 0.75 सेंटीग्रेट की वृद्धि हुई है। विशेषज्ञों के अनुसार हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियर प्रतिवर्ष अधिक मात्रा में पिघल रहे हैं। इनमें मिलम 13.5 मीटर प्रति वर्ष, त्रिशूल 10 मीटर प्रति वर्ष, पूर्वी कामेट 5 मीटर प्रति वर्ष, गंगोत्री 15 मीटर प्रति वर्ष, सिक्किम का जिमू 8 मीटर प्रति वर्ष, कश्मीर का स्टोक 5 मीटर प्रति वर्ष की दर से पिघल रहे हैं। आमतौर पर तापमान में न्यूनतम वृद्धि भी जीवन के विभिन्न पक्षों को प्रभावित कर रही है।
बढ़ती गर्मी और बदलते मौसम के कारण वायुमंडल में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है, जिससे जैव विविधता पर विपरीत असर पड़ रहा है। इसके चलते पौधों का जीवन चक्र, प्रस्फुटन, फूल खिलने, फल लगने और बीज बनने के क्रम में भी अंतर दिखाई दे रहा है। वहीं निचली ऊंचाई के पौधे ऊपरी ऊंचाई की ओर पलायन कर रहे हैं। वर्ष 2009 में बुरांश का समय से पहले खिलना और 2010 में पुन: वापस लौटना इसका उदाहरण है। हिमालय अपनी जटिलता और संवेदनशीलता के कारण जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हो रहा है। इसलिए प्रदेश में अधिक से अधिक मौसम केंद्र लगवाए जाने की जरूरत है, ताकि बदलते घटनाक्रम पर नजर रखी जा सके।
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