हिमालयी टोपियों -हिमाचली, उत्तराखंडी व नेपाली समेत सभी टोपियों की गाथा

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अजन्में मेमने की खाल से बनती है कौन सी टोपी ?

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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संसार में परिवर्तन अटल सत्य है। मानव सभ्यता के विकास के साथ ही मनुष्य का पहनावा भी बदलता रहा है। हम जो कुछ भी पहनते हैं,

 

उसका भी एक इतिहास है। इस बार हिमालयी क्षेत्र के लोगों की टोपियों के बारे में जानकारी दे रहा हूं।  सिर को ढकने की परंपरा भारत ही नहीं, लगभग पूरे विश्व में रही है। सिर के पहनावे को कपालिका, शिरस्त्राण, शिरावस्त्र या सिरोवेष कहते हैं।  इस पहनावे में टोपी, (Cap )पगड़ी या अन्य वस्त्र हो सकता है। कई धर्मों में तो पूजा के समय सिर को ढक पर रखना अनिवार्य है। माना जाता है कि मानव सभ्यता के विकास के साथ ही सिर को भी वस्त्र पहनाया जाने लगा था।  यह वस्त्र भिन्न रूपों व आकारों में मिलता रहा है। इसके कई प्रयोग होते हैं, उदाहरण के लिए सिर को सर्दी, वर्षा, हिम व धूप से बचाना प्रमुख रहा है। बाद में टोपियां एक समुदाय अथवा धर्म को पहचान देने में भी प्रयोग होने लगीं। भारत में टापियां हर क्षेत्र में अलग- अलग रूपों में व नामों से पहनी जात रही है। जबकि पगड़ी का इतिहास प्रमुख तौर पर राजपूत समाज से रहा है। जबकी पगड़ी तो सिखों की पहचान ही बन गई है। मुस्लिम परंपरा में भी सिर पर गोल टोपी पहनने का प्रचलन है। ईसाई, यहूदी आदि समाजों के धर्मगुरु भी लगभग इसी तरह की टोपी पहनते हैं। हालांकि अब नयी पीढ़ी अपनी परंपरागत टोपियों से दूरी बनाने लगी है।

भारत में शिरोवस्त्र सामाजिक व सामुदायिक मूल्यों के प्रतीक स्वरूप पहनी जाती ही हैं।  कुछ समुदायों में शिरोवस्त्र शौर्य की पहचान और इसके सम्मान की रक्षा के लिए वीरता का कार्य माना जाता रहा है। पगड़ी तो मनुष्य के सम्मान का प्रतीक बन गई। हिमालयी क्षेत्र में कड़ाके की ठंड से बचने के लिए मनुष्य शुरू से ही सिर को ढकता रहा है। इसके लिए पहले एक साफा यानी कपड़ा बांध लिया जाता था, जो कि पगड़ी जैसा लगता था। परंतु समय के साथ यहां  अलग-अलग तरह की टोपियां पहनी जाने लगीं। इन टोपियों की भी अपनी अपनी कथाएं व  गाथाएं हैं । इनसे धार्मिक व सामाजिक प्रतिष्ठा, सम्मान, कर्तव्य, संस्कृति आदि जुड़े हैं। उत्तराखंड की गढ़वाली- कुमायुंनी टोपी, हिमाचली टोपी, नेपाली टोपी, लद्दाखी कश्मीरी टोपी से लेकर पूर्वोत्तर की टोपियां व हैट  भी शामिल हैं।

उत्तराखंड में टोपी (Uttarakhand ki Topi) को टोपली, टुपला, ट्वपला, कहा जाता है।वैसे  माना जाता है कि प्राचीन समय में उत्तराखंड लोग टोपी नहीं बल्कि पग्गड़ या डांटा पहनते थे।  टोपी पहनने की परंपरा बाद में शुरू हुई। कहा जाता है कि चांदपुर गढ़ी के राजा भानुप्रताप के शासनकाल में मृगछाला और ऊन से टोपियां बनाई जाने लगी । उत्तराखंड की आज की पारंपरिक टोपी कुछ-कुछ मराठी टोपी जैसी दिखती है।  यह टोपी गढ़वाल और कुमायुं, दोनों मंडलों में पहनी जाती है।  इस बात में कितना सत्य है, यह शोध का विषय है कि आदि शंकराचार्य के साथ यह टोपी दक्षिण  भारत से उत्तराखंड आई। यह भी कहा जाता है कि जब मुसलिम आक्रांताओं के कहर से बचने के लिए यहां मराठी ब्राह्मण भी यहां आए। उनके साथ मराठी टोपी भी यहां आ गयी।  गांधी टोपी भी लगभग ऐसी है। बस अंतर यह है कि गांधी टोपी सिर्फ सफेद खादी की होती है।  गांधी टोपी इसलिए कहा जाता है कि उन्होंने इसे कुछ समय के लिए पहना था। वे इस टोपी के अविष्कारक नहीं है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की टोपी भी ऐसी ही है, परंतु उसका रंग काला रहता है। गांधी और संघ से बहुत पहले से उत्तराखंड में यह टोपी (Uttarakhand ki Topi) पहनी जाती रही है। इन टोपियों को यहां के औजी, बाजगी बनाते रहे हैं। वे  ढोल, दमाउ जैसे वाद्ययंत्रों को बजाने के साथ-साथ सिलाई का कार्य भी  करते थे।

इसके अलावा गढ़वाल के कुछ हिस्सों में पारंपरिक गोल टोपी भी पहनी जाती रही है। इस टोपी की विशेषता  यह है कि इसमें अनाज को भी मापा जा सकता था। इसकी नाप एक पाथा यानी दो किलो अनाज तोलने के बर्तन समान थी। 17वीं से 18वीं सदी तक इस टोपी का प्रचलन पहाड़ों में अनाज के आदान प्रदान के लिए भी किया जाता रहा। तब पाथा, सेर, माणा, तामी जैसे गढ़वाली मापक यंत्र नहीं थे। टोपी से नापकर ही सामग्री खरीदी, बेची जाती थी। इसी टोपी को गढ़वाल राइफल के ब्रासबैंड में जवान पहनते हैं। विक्टोरिया क्रास विजेता गब्बर सिंह व दरबान सिंह के सिर पर देखी जा सकती है। उत्तराखंड में इसी टोपी को कुछ लोग प्रदेश की टोपी बनाने की कोशिश में लगे थे। परंतु इससे यह भ्रम होता है कि यह हिमाचली टोपी है। अब इस टोपी को बेहतर बनाने के लिए इस पर स्‍थानीय लोग ब्रह्मकमल आदि निशान भी लगा देते हैं।  गढ़वाल की यमुना घाटी के रवांई  क्षेत्र की टोपी को रवांल्‍टी टोपी कहा जाता है। यह ऊन की बनी गोल टोपी है। इसको सिकली, सेकई या फेडसेकई भी कहते हैं।

अब हिमाचली टोपी (Himachali Topi)की बात करता हूं। यह टोपी तो पूरे संसार में अपनी विशेष पहचान बना चुकी है।  यह टोपी  हिमाचली लोगों के जीवन में एक प्रमुख स्थान रखती है। शादी-ब्याह, तीज, त्योहार या मांगलिक कार्य सभी में इस टोपी को पहनाने की परंपरा है। ऐतिहासिक रूप से हिमाचली टोपी, किन्नौर से लेकर पूर्व की रियासत बुशहर राज्य के कुछ हिस्सों में फैली हुई थी। वहां से धीरे-धीरे हिमाचल समेत पूरे भारत व सं ()सार में पहुंच गई।हिमाचली टोपी मुख्य रूप से (Himachali Topi) के चार प्रकार हैं । एक-कुल्लूवी टोपी ( Kulluvi (Kullu) Topi)। दो-बुशहरी टोपी (Bushahri Topi) । तीन- किन्नौरी टोपी (Kinnauri Topi)। चार- लाहौली टोपी ( Lahauli Topi)। ये वैसे तो एक जैसी हैं, परंतु इनके रंग व डिजाइन में कुछ अंतर होता है। बुशहरी टोपी को हिमाचल में पारंपरिक टोपियों का मूल माना जाता है। कुल्लूवी टोपी (Kulluvi Topi)  मुख्यत: कुल्लु जिले में पहनी जाती है। इस टोपी का आकार गोल होती है और लूप बहु-रंगीन धारियों के साथ आता है। बुशहरी टोपी (Bushahri Topi) तोता-हरा मखमली या शनील कपड़े की पट्टी के साथ सजी रहती है। बुशहरी टोपी में कुल्लूवी टोपी के विपरीत, लूप को बाएं से दाएं की तरफ पहना जाता है। तोता-हरा कभी बुशहर रियासत का राजकीय रंग था और टोपी पर उस रंग का लूप इसका प्रतीक था। किन्नौरी टोपी (The Kinnauri Cap)  किन्नौर क्षेत्र में पहनी जाती है। यह टोपी लाल रंग रंगीन मखमली या शनील कपड़े की पट्टी के साथ सजी रहती है।  लाहौली टोपी( The Lahauli Cap) लाहौल क्षेत्र में पहनी जाती । यह कुल्लूवी टोपी के ही समान है।परंतु  इस टोपी का शेष भाग सादा ही रहता है।

गढ़वाल में एक बात सुनी जाती है कि हिमाचल की जो टोपी (Himachali Topi) है वह  डांडा –क्वारा और रामगढ़ी गढ़ क्षेत्र में पहनी जाती थी। ये आज हिमाचल का हिस्सा हैं परंतु कभी गढ देश का हिस्सा थे। गढ़ नरेश सुदर्शन शाह ने डांडा- क्वारा को अपनी बेटी को दहेज में बिसार के राजा महेंद्र सिंह को दे दिया था, जबकि रामगढ़ी गोरखा शासन के समय गढ़वाल से हिमाचल में चला गया। इस तरह यह टोपी भी हिमाचल प्रदेश में चली गई।

अब नेपाली टोपी (Nepali Topi)की बात करता हूं। इसे ढाका टोपी भी कहा जाता है। यह नेपाली राष्ट्रीय पोशाक का एक हिस्सा  और नेपाली राष्ट्रीयता का प्रतीक रहा है। राजा महेंद्र के शासनकाल के दौरान यह लोकप्रिय हुई। उन्होंने 1955 से 1972 तक शासन किया। राजा ने पासपोर्ट और दस्तावेजों के लिए आधिकारिक तस्वीरों के लिए ढाका टोपी पहनना अनिवार्य कर दिया। यह टोपी जिस कपड़े से बनाई जाती है उसे ढाका कहते हैं इसी लिए इसका नाम ढाका टोपी पड़ा है। ढाका से बुनी गई टोपी (Nepali Topi)को ढाका टपुली कहते हैं। डोटेली भाषा यानी खास भाषा में घर पर पारंपरिक तरीके से बने धागे को ढाका कहते हैं। इसे नेपाली में ढाका-को-चोलो भी कहते हैं। माना जाता है कि यह टोपी (Nepali Topi) काठमांडू उपत्यका  पर शासन करने वाले नेवारों की रही है। बाद में अन्य लोग भी पहनने लगे। भारत में सिक्किम के साथ ही दार्जिलिंग समेत विभिन्न क्षेत्रों में बसे गोरखा व अन्य लोग भी इसे पहनते हैं।

इसी तरह लद्दाख की परपरागत पोशाक की टोपी को पेरक कहते हैं। यह लद्दाख की पारंपरिक सिर-पोशाक है। यह एक लंबी टोपी होती है।

जम्मू-कश्मीर ( Kashmiri Topi)में लोग पहले सिर पर पगड़ी ही पहनते थे परंतु कश्मीर में इस्लाम के आने के बाद  पहनावा भी बदलता चला गया। कश्मीर में पिछले कई दशकों से काराकुल टोपियां पहनी जाती रही हैं। इस टोपी को बोलचाल में करकुली कहा जाता है। इसे कश्मीरी के कुलीन लोग पहनते रहे  है। यह देशी कश्मीरी मूल की टोपी नहीं है। माना जाता है कि सन 1930-40 के दशक में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कश्मीर घाटी में मुस्लिम नेताओं ने इसे लोकप्रिय बनाया। वैसे  कश्मीर में जमींदारों की पारंपरिक टोपी ऐतिहासिक रूप से पश्तून टोपी के समान थी। यह एक पगड़ी जैसी थी। परंतु अब  यह टोपी  गायब हो गई है। कश्मीरी पंडित भी पगड़ी ही पहनते थे।  कश्मीर के अधिकतर धार्मिक स्थलों के पुजारी पगड़ी ही पहनते हैं। 

कराकुली टोपी (karakul (or qaraqul) hat )के बारे में भी बताना आवश्यक है। कश्मीर में यह सदियों से बनाई और पहनी जा रही है। मध्य एशिया में पाई जाने वाली भेड़ काराकुल की नर्म खाल से तैयार होने के कारण ही इसका नाम काराकुली टोपी है। यह भेड़ के घुंघराले बालों से बनाई जाती है। यह टोपी दो निरीह प्राणियों की जान लेकर तैयार होती है। काराकुली टोपी के लिए बढ़िया खाल भेड़ के अजन्मे मेमने के शरीर की होती है। इसके लिए भेड़ को उस समय मारा जाता है, जब उसके पेट में मेमना जन्म के लिए लगभग तैयार हो चुका होता है। इस प्रक्रिया में भेड़ और मेमना दोनों ही मारे जाते हैं। अब इसकी मांग घट चुकी है। क्योंकि यह बहुत महंगी होती है। कश्मीर के अथधिकतर नेता यही कराकुली टोपी (karakul (or qaraqul) hat ) पहनते रहे हैं। पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर प्रांत और अफगानिस्तान में यह टोपी स्थानीय संस्कृति का एक हिस्सा रही है। काराकुली टोपी पहनने वाले को यहां अमीर और प्रभावशाली व्यक्ति माना जाता रहा है।  इसे उज़्बेक टोपी भी कहा जाता है। यह टोपी मूल रूप से बुखारा से है। अफगानिस्तान में इस्लामी देश घोषित होने के बाद अब यह टोपी (karakul (or qaraqul) hat ) फैशन से बाहर हो रही है।  कराकुली के रूप व आकार की नकली फर की टोपियां भी बनती रही हैं। जो मैने पहनी है।)

अब चलते हैं  पूर्वोत्तर। पूर्वोत्तर में जितने भी आदिवासी समूह हैं, उन सभी की अलग-अलग टोपियां हैं। ये बांस से भी बनाई जाती हैं। सीमंत प्रदेश अरुणाचल प्रदेश की एक बड़ी जनजाति नाइशि (Nyishi) के पारंपरिक परिधान का महत्वपूर्ण हिस्सा टोपी ब्योपा (Byopa)है। अरुणाचल के सरकारी कार्यक्रमों में ब्योपा को मुख्य अतिथि व विशिष्ट अतिथियों को उपहार स्वरूप भेंट करने का चलन है। इसी तरह यहां की मोनपा जनजाति की टोपी को गुरदम कहा जाता है। यह याक के बालों से बनी होती हैं। कई जनजातियों के लोग हिरण और भालू की खाल और बेंत से तराशे हुए हेलमेट पहनते हैं। अन्य राज्यों में भी इसी तरह की परंपरागत टोपियां व हैट हैं।

यह था हिमालयी लोगों की टोपियों का  इतिहास ।  जै हिमालय, जै भारत।

 

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