नई दिल्ली। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पहाड़ी क्षेत्रों में 3000 गांव पूरी तरह खाली हो गए हैं और ढाई लाख से ज्यादा घरों में ताले लटके हुए हैं। ये सरकारी आंकडे हैं। गैर सरकारी आंकड़ा इससे कहीं अधिक हो सकता है। समृद्ध पहाड़ी शैली में निर्मित हजारों भव्य मकानों में घास व झाड़ियां उग गई हैं। पूरे के पूरे गांव खंडहरों में तब्दील हो गए हैं। अल्मोड़ा, पौड़ी, टिहरी और पिथौरागढ़ जिलों से सर्वाधिक पलायन हुआ है। अल्मोड़ा जिले में 36,401 और पौड़ी जिले में 35,654 घर खंडहर हो चुके हैं। टिहरी में 33,689 और पिथौरागढ़ में 22,936 घरों में ताले लगे हुए हैं।
अब वहां बांग्ला देशी मुसलमान और नेपाली बस रहे हैं। इससे डेमो ग्राफ़ी बदला जाने का डर है। उत्तराखंड के पहाड़ों से लोग देहरादून, ऋषिकेश , कोटद्वार , रामनगर , हल्द्वानी, आदि शहरों में बस रहे हैं। इससे पहले 2011 के जनसंख्या आंकड़े बता चुके हैं कि राज्य के करीब 17 हजार गांवों में से एक हजार से ज्यादा गांव पूरी तरह खाली हो चुके हैं। 400 गांवों में दस से कम की आबादी रह गई है। 2013 की भीषण प्राकृतिक आपदा ने तो इस प्रक्रिया को और तेज कर दिया है और पिछले तीन साल में और गांव खाली हुए हैं। हाल के अनुमान ये हैं कि ऐसे गांवों की संख्या साढ़े तीन हजार पहुंच चुकी है, जहां बहुत कम लोग रह गए हैं या वे बिल्कुल खाली हो गए हैं।
पलायन की तीव्र रफ्तार का अंदाजा इसी से लगता है कि कुमाऊं के चंपावत जिले के 37 गांवों में कोई युवा वोटर ही नहीं है। सारे वोटर 60 साल की उम्र के ऊपर के हैं और ये बुजुर्ग आबादी भी गिनी चुनी है। एक गांव में बामुश्किल 60-70 की आबादी रह गई है। अनुमान है कि पिछले 16-17 वर्षों में करीब 32 लाख लोगों ने अपना मूल निवास छोड़ा है। दूसरी तरफ शहरों में युवा वोटरों की संख्या बढ़ती जा रही है। इस समय करीब 75 लाख मतदाताओं में से 56 लाख ऐसे वोटर हैं जिनकी उम्र 50 साल से कम है। इनमें से करीब 21 लाख लोग 20-29 के आयु वर्ग में हैं और करीब 18 लाख 30-39 के वर्ग में हैं।
हाल में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की देहरादून में आयोजित दो दिवसीय सेमिनार में भी ‘पहाड़ों से पलायन’ ही मुख्य चर्चा का विषय रहा। आयोग ने भी इसके लिए राज्य में बनी सरकारों को ही जिम्मेदार ठहराया और अधिकारियों से इस बारे में जवाब मांगा। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्यगण एवं न्यायाधीश पीसी घोष, डी. मुरुगेशन और ज्योति कालरा ने सेमीनार में कहा कि, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है, लेकिन विडंबना ही है कि सरकारें इन सेवाओं को उपलब्ध कराने में नाकाम रही हैं।