————प्रो. हरिमोहन

हिमालय विश्व का गौरव है। इसमें विशेष रूप से भारत और समूची भारतीय संस्कृति की विराटता एवं औदात्य एक साथ रूपायित होते हैं। इसलिए भारत और हिमालय दोनों एक-दूसरे के पर्याय हो गए हैं। सदियों से अपने धवल रूप में मौनद्रष्टा की भांति खड़ा यह गिरिराज भारतीय संस्कृति एवं जनजीवन में होने वाले परिवर्तनों का साक्षी रहा है। हमारे मनीषी मानते हैं कि भारत की भू-भौतिक रचना जिस तरह हिमालय के पद-तल और परिपाश्र्व में हुई है, उसी तरह यहां के जनजीवन का वैचारिक तथा सांस्कृतिक निर्माण भी हिमालय की छाया में हुआ है। इसीलिए यह भारतीय संस्कृति का अविच्छिन्न अंग बन गया है। भारतीय साहित्य, कला, धर्म, दर्शन और जीवन-विधि में हिमालय का जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष प्रभाव दिखाई देता है, वह इस मान्यता को सही ठहराता है।
पर्वतराज हिमालय की श्रेणियां उत्तर-पश्चिम में कश्मीर से आरम्भ होकर पूर्वोत्तर भारतीय सीमा और बर्मा तक लगभग 2500 किलोमीटर की लम्बाई तक फैली हैं। मुख्य हिमालय में कई समानान्तर पर्वत-श्रेणियां हैं, जिनसे इनकी चौड़ाई 150 से 200 किलोमीटर तक हो जाती है। विशाल हिमालय की इसकी विभिन्न पर्वत-शृंखलाओं के आधार पर मुख्यत: तीन भागों में विभाजित किया जाता है-
1. वृहत्तर हिमालय
2. मध्य या लघु हिमालय
3. वाह्य अथवा उप हिमालय
समानान्तर श्रेणियों के आधार पर ही एक अन्य विभाजन इस प्रकार है :-
1. अंत:श्रेणी हिमालय
2. मध्य हिमालय
3. बाहरी श्रेणी हिमालय या लघु हिमालय
इसके अतिरिक्त अध्ययन की सुविधा के लिए हिमालय का क्षेत्रीय विभाजन भी किया गया है। जिसके अनुसार पूरे पर्वतीय क्षेत्र को पश्चिमी हिमालय, मध्यवर्ती हिमालय तथा पूर्वी हिमालय के तीन उपक्षेत्रों में विभाजित किया गया है।
जहां तक मध्य हिमालय का संबंध है, यह महाहिमालय के दक्षिण में फैली पर्वत श्रेणी है, जिसकी चौड़ाई 40 से 60 किलोमीटर की है और औसत ऊंचाई 3500 मीटर है। यह उत्तर में महाहिमालय तथा दक्षिण में लघु हिमालय के मध्य फैली हुई ऐसी विविधतामयी पर्वत श्रेणी है, जिसके दोनों ओर अनेक गहन घाटियां हैं और इसकी ढालों पर सघन वन है। प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर इस सुन्दर प्रदेश में कई स्वास्थ्यप्रद पर्यटक स्थल हैं। हिमाचल प्रदेश तथा नवसृजित उत्तरांचल राज्य मध्य हिमालय की गोद में बसे ऐसे ही प्रदेश हैं, जिनके सौन्दर्य को देखकर देश-विदेश के पर्यटक मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। विश्वभर में घूमा एक प्रकृति-प्रेमी घुमक्कड़ अंग्रेज (संभवत: हेनरी स्ट्रेची) जब 1846 ई. के आसपास मध्य हिमालय के पहाड़ों में घूमता हुआ पहुंचा तो उसने अपने अनुभव इस प्रकार लिपिबद्ध किए-‘मैंने आल्पस के माउंट ब्लॉक स्तूपाकार शिखर से जुंग्राफ के कगार और हिमनदों का अवलोकन किया है। मैं जापान के फ्यूजीयामा पर्वत शिखर की कोड़ में भी रहा हूं, परंतु गढ़वाल में, हिमालय के इन शहंशाही अंदाज में खड़े शिखरों के निकट वैभव से तुलना करने के लिए उन सबको इकट्ठा करना पड़ेगा, जहां मीलों तक बर्फीले हिमनद फैले हैं, जहां भयावह सन्नाटा है, जहां की अपार नीरवता में अनन्त काल तक हिमराशि अखंडित रहेगी।’ (पातीराम, गढ़वाल एनशियंट एण्ड मॉडर्न, 1916, पृष्ठ-45)
हिमालय की संस्कृति का निर्माण : नए तथ्य
हिमालय में मनुष्य ने कब से बसना शुरू किया, इस प्रश्न का कोई निश्चित उत्तर नहीं है। सामान्यत: यह समझा जाता रहा है कि प्राचीन हिमालयी समाज और संस्कृति के निर्माण में देश के विभिन्न भागों में समय-समय पर आए जिज्ञासु घुमक्कड़ों, तपस्वियों और तीर्थयात्रियों का योगदान रहा है। उन्होंने ही यहां बस कर इस संस्कृति को पल्लवित किया। उन्हें हिमालय का आकर्षण यहां खींच लाया था। प्राचीन साहित्य में इस तरह के आव्रजन की प्रक्रिया के अनेक उदाहरण मिल जाते हैं। स्वयं महाभारत में ऐसे उदाहरण उपलब्ध है। लेकिन वर्तमान पुरातात्विक अन्वेषणों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि हिमालयी संस्कृति के जनक निचली घाटियों अथवा मैदानी क्षेत्रों से आने वाले लोग नहीं थे, बल्कि उच्च हिमालयी भू-भागों में रहने वाले पशुचारक समुदाय के वे लोग थे, जो आज से लगभग 4 हजार वर्ष से पूर्व पश्चिम में पाकिस्तान के पर्वतीय भू-भाग से लेकर कश्मीर-हिमालय, उत्तरांचल एवं उत्तरी नेपाल के ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में फैले थे। ये लोग एक समृद्ध संस्कृति के पोषक थे। इनका मिट्टी के पात्रों के निर्माण तथा धातुविज्ञान का ज्ञान ऊंचे स्तर का था। हड़प्पा सभ्यता के अंत और ऋग्वेदिक सभ्यता के आगमन के बीच का काल इस संस्कृति के विस्तार का युग था। यदि इस उच्च हिमालयी क्षेत्र को एक इकाई मानकर विस्तृत पुरातात्विक एवं मानशास्त्रीय अध्ययन किया जाए तो एक ऐसी विकसित संस्कृति पर प्रकाश पड़ सकता है, जिसके बारे में अन्य स्रोतों से जानकारी उपलब्ध नहीं है। इसके साथ ही यह भारतीय इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न ‘आर्यों की उत्पत्ति को भी हल करने में एक सीमा तक सहायक सिद्ध हो सकता है।
उत्तरांचल में मिले महापाषाणीय संस्कृति के अवशेष उत्तरांचल (लोकप्रचलित नाम-उत्तराखण्ड) हिमालय में महापाषाणीय संस्कृति की खोज एक रोचक विषय रहा है। पिछले सौ वर्षों से इस क्षेत्र से अनेक विद्वानों ने हिमालयी संस्कृति की खोज के प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। इनमें हेनवुड (1858), कारनेक (1877), हवीलर (1959), डबराल (1968), नौटियाल (1983), जोशी (1986), अग्रवाल (1991) तथा शर्मा (1991) उल्लेखनीय हैं।
हाल ही में हेमवंतीनंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के इतिहास तथा प्राचीन इतिहास, संस्कृति तथा पुरातत्व विभाग ने भारत-तिब्बत सीमा पर धौली घाटी में स्थित मलारी नामक स्थान से महापाषाणीय शवागार संस्कृति के महत्वपूर्ण अवशेष खोज निकाले हैं। इस विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर बी.एम. खण्डूरी ने बताया है कि उनके विभाग के एक दल ने डॉ. राकेश भट्ट के नेतृत्व में जोशीमठ से 63 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में समुद्रतल से लगभग 3500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित मलारी नामक स्थान पर एक प्राचीन गुफा शवागार खोज निकाला है। इस दल के अन्य सदस्य थे-कुंवर सिंह नेगी, सुधीर नौटियाल, भगवती प्रसाद पुरोहित, संजीव जुयाल और बी. पी. देवली। इस शवागार की महत्वपूर्ण विशेषता है कि इसे पहाड़ी को काटकर गुफा के रूप में निर्मित किया गया था।  मलारी गांव जिस स्थान पर बसा है, उसी के ढाल पर इस प्रकार के शवागार अथवा समाधियां निर्मित किए गए थे। उत्खनन में गुफा के अंदर से सम्पूर्ण मानव-कंकाल प्राप्त हुआ है, जिसे दक्षिण-पूर्व उत्तर-पश्चिम दिशा में औंधा लिटाया गया था। अस्थि अवशेषों के प्रारम्भिक परीक्षण से पता चला है कि यह शव 12 से 15 वर्ष की आयु के बालक का रहा होगा। शव के ऊपर धातु का एक पतला मुखौटा भी रखा गया था, जिसका वजन 5.2 ग्राम है। शव के चारों तरफ विभिन्न आकार-प्रकार के 11 बर्तन रखे गए थे, जिनमें 10 पात्र मिट्टी के हैं। एक पात्र कांसे का कटोरा है। कांसे के कटोरे की उपलब्धि पुरातात्विक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, जो तत्कालीन निवासियों द्वारा धातुविज्ञान के ज्ञान को प्रमाणित करती है। यहां से लाल तथा धूसर रंग के मृदभाण्ड प्राप्त हुए हैं। इनमें घड़े तथा तश्तरी धूसर रंग के तथा शेष सभी बर्तन लाल रंग के हैं। मिट्टी के बर्तनों में एक बड़ा घड़ा, तीन छोटे घड़े, एक बड़ी कटोरी तथा टोंटीदार बर्तन प्रमुख हैं। आधार पर निर्मित इन बर्तनों पर रेखाओं, चटाई तथा ज्यामितिक डिजाइन के अलंकरण भी देखे जा सकते हैं। इनमें से छह बर्तनों को पकड़ने के लिए हत्थे भी निर्मित किए गए हैं। शव के साथ ही बकरी की हड्डियां भी प्राप्त हुई हैं, जिससे लगता है कि अंतिम संस्कार के समय पशु-बलि भी दी जाती थी।
पहले भी इस विभाग के संस्थापक प्रो. के. पी. नौटियाल के नेतृत्व में 1983 में डॉ. राकेश भट्ट ने गुफा समाधि के अवशेष प्राप्त किए थे। इन अवशेषों में भी नर कंकाल के साथ पशु-अस्थियां रखी हुई थीं। कुछ समय पूर्व विभाग के ही अन्य खोजकर्ता प्रो. विनोद नौटियाल को भी एक सर्वेक्षण में यहीं से एक पूरा मानव कंकाल प्राप्त हुआ था, जिसकी तिथि परीक्षण के लिए उसकी हड्डी का नमूना रिसर्च लेबोरेटरी ऑफ आर्ट एंड आर्कियोलॉजी, ऑक्सफोर्ड, इंग्लैंड भेजा गया है। इसकी वैज्ञानिक तिथि शीघ्र ही उपलब्ध हो जाएगी।
प्रो. बी. एम. खण्डूरी ने इस दिशा में मध्य हिमालय के अन्य क्षेत्र में भी उल्लेखनीय कार्य किया है। उन्होंने कुमाऊं के रामगंगा घाटी में किए गए उत्खननों में बड़ी संख्या में महापाषाणीय शवागार खोज निकाले हैं। 27 से भी अधिक ऐसे शवागारों में मानव अस्थियों के अवशेष, विभिन्न तरह के 80 मिट्टी के पात्र आदि पुरातात्विक महत्व सामग्री मिली है। यह सब पुरावशेष विश्वविद्यालय के संग्रहालय में रखे हुए हैं।
यह उपलब्धियां केवल मध्य हिमालय क्षेत्रीय पुरातत्व की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं हैं, अपितु इनसे पाकिस्तान से लेकर नेपाल तक फैले हुए समूचे उच्च हिमालयी क्षेत्र की पुरातात्विक एवं सांस्कृतिक विरासत और उसके विस्तार को समझने में मदद मिलेगी। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान की स्वात घाटी में भी इसी प्रकार के अवशेष ल्यूबनार, बुतकारा, कटेलई, तिमारगरह, जरीफकरूना, बालमबाट, थाना, अलीग्राम, गिलीगई आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त कश्मीर, लद्दाख, दक्षिणी तिब्बत, हिमाचल प्रदेश के किन्नौर, कांगड़ा क्षेत्र में तथा उत्तरी नेपाल की मुस्तांग घाटी में भी इसी तरह के अवशेष मिले हैं।
इससे स्पष्ट होता है कि इन सभी हिमालय क्षेत्रों में निवास करने वाले जातीय समूहों का मूल एक ही था तथा दूसरी सहस्राब्दी ई. पू. में मध्य एशिया से कश्मीर, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश तथा उत्तराखंड के गढ़वाल-कुमाऊं में इस सभ्यता के लोगों का प्रसार हुआ। बाद में इन जाति समूहों में से कुछ जातियां धीरे-धीरे ऐतिहासिक काल में हिमालय की निचली घाटियों में बसती चली गईं।
इस प्राचीन सभ्यता के निर्माता कौन थे?
सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि उपलब्ध अवशेषों वाली इस प्राचीन सभ्यता के निर्माता या जनक कौन थे? शोधकर्ताओं के अनुसार ईसा पूर्व दो हजार वर्ष में उच्च हिमालयी क्षेत्र विभिन्न जातियों के घुमन्तू समूहों की गतिविधियों का केंद्र रहा है। जो मूल रूप से पशुचारक थे। यह लोग चारागाहों की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान में विचरते रहते थे। इनमें खस, दरद, तंगण, परंतगण, अभिसार, किरात, राज-किरात आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इनका उल्लेख हमें महाभारत, रामायण, उपनिषदों, सूत्र साहित्य आदि में मिलता है। इनके अतिरिक्त वराहमिहिर की वृहत्संहिता, पाणिनि की अष्टाध्यायी, मनुस्मृति, बौद्ध ग्रंथ ‘दिव्यावदान’, राजशेखर-कृत ‘काव्यमीमांसा’ तथा कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ में भी मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन जाति-समूहों का मूल एक ही था। अनेक विद्वानों के अनुसार यह सभी जातियां या तो आर्यों से संबंधित थीं अथवा उनके समकालीन थीं। अपने मूल स्थान से प्रवचन करते-करते ये लोग उच्च हिमालयी क्षेत्र में फैल गए। बहुत संभव है कि प्रारंभिक समय में पशुचारक ऋग्वेदिक आर्य संस्कृति और पशुचारक उच्च हिमालयी शवागार संस्कृति के लोग एक ही मूल संस्कृति के लोग हों। इनमें से एक शाखा जिसने ऋग्वैदिक संस्कृति को जन्म दिया, जो पहाड़ों से उतर कर सिन्धु तथा उसकी सहायक नदियों की उपत्यकायों में फैल गई तथा दूसरी शाखा उच्च हिमालयी क्षेत्र में चारागाहों की खोज में पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ती चली गई।
ऐतिहासिक अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि कालान्तर में इन हिमालयी जातियों ने विभिन्न नामों से भारतीय इतिहास में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। उदाहरण के लिए चौथी शताब्दी ईसा पूर्व सिकन्दर का सामना करने वाली उत्तर-पश्चिमी सीमान्त की अधिकांश जातियां शिवि, आश्वालयन आदि की शक्ति तथा द्वितीय-तृतीय शताब्दी ईसवी में कुषाणों की शक्ति को भारत में क्षीण करने वाले कुणिन्द, गौछेय आदि उत्तराखण्ड के महान कत्यूरी शासक तथा डोटी (नेपाल) के साम्राज्य निर्माता इन्हीं जातियों के वंशज थे। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि कत्यूरियों की प्रथम राजधानी का महाविद्यालय (जोशीमठ के निकट) में स्थित होना, मात्र ‘एक संयोग’ नहीं कहा जा सकता। गोपेश्वर के त्रिशूल अभिलेख में उल्लिखित डोटी (नेपाल) का शक्तिशाली शासक अशोक चक्र अपने आपको गर्व से ‘खणादिपति’ कहता है। इससे स्पष्ट होता है कि मध्य हिमालय की आरम्भिक संस्कृति के निर्माता निचली घाटियों अथवा उत्तरी भारत के मैदानी भागों से नहीं, अपितु महाविद्यालय के ऊंचे दुर्गम रास्तों से आए होंगे।

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