बात वर्ष1854 की है। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रेंकलिन पियर्स ने रेड इंडियन की भूमि का एक विशाल भू-भाग खरीदने का प्रस्ताव उनके मुखिया शिएटल के पास भेजा। इस प्रस्ताव में उन्हें विस्थापित कर उनके लिए दूसरे इलाके में जमीन देने का प्रावधान था। सरल हृदय प्रकृति पुत्र शिएटल के लिए भूमि का अर्थ भेड़ों या चमकदार मोतियों की तरह खरीद-फरोख्त को वस्तु नहीं अपितु रक्त संबंधों की व्यापकता में था। यह भूमि हमारी मां है, हम इसी के हिस्से हैं और यह हमारा ही अंग, सुगंधित पुष्प हमारी बहनें हैं। हिरन, घोड़े विशालकाय बाज हमारे भाई हैं। इन नदियों में बहता चमकीला जल, मात्र जल ही नहीं हमारे पूर्वजों का रक्त हैं। बहते हुए जल का कल-कल दरअसल मेरे पिता के पिता की आवाज है।
शिएटल की इस अपील, (सोशल चेंज खण्ड 22 (1)) के इन शब्दों में ही भूमि का अर्थ निहित है। वह प्रकृति जो, उसके रगों में रक्त बनकर दौड़ रही है वह आज के समाज के एक बड़े वर्ग के लिए सिर्फ दाम देकर खरीदने जैसी वस्तु रह गई है। वह वर्ग उसे अन्यत्र अन्य साधनों से उपलब्ध करवा सकता है जो कि वह समझता है कि उसके वश में है। चूंकि यह धनाड्य की, आकाश को, धरती को, धरती की गर्माहट को कोई निजी संपत्ति मानकर चलता है।
आज चूंकि हिमालयी क्षेत्र का सिर्फ दोहन हो रहा है। हिमालय की चिंता किसी को नहीं है, ऐसे में शिएटल के पत्र की महत्ता और बढ़ जाती है।
शिएटल को यह चिरंतर व्यथा जस की तस बल्कि और भी विक्षिप्त रूप में विश्व परिवेश में नितांत एकांकी भी, यह व्यथा इस भूमंडल पर बचे-खुचे प्रकृति पुत्रों की है जो उसी के सानिध्य में पलते-बढ़ते हैं, उसी को ओढ़ते-बिछाते हैं। इधर आदमी चांद पर पहुंच चुका है और उससे भी आगे जाने की तैयारी पर है। सत्य यह भी है कि दो-चार को छोड़कर सभी चांद पर नहीं पहुंच पाएंगे। अभी तक अधिकांश के चांद-सितारे इसी धरती पर है। जंगल, पहाड़, नदियां जीव-जंतु, मिट्टी हवा-पानी। हो सकता है उन्हें ऊपर जाना अच्छा भी न लगे। विकसित विश्व को इस रफ्तार से चांद पर पहुंचने के साथ, न जाने क्यों धरती पर छूट-छूट रहे उन समाजों की चिंता हो रही है जिन्हें अनंत काल से प्रकृति से सह-अस्तित्व में जीने के हक स्वयं प्रकृति ने दिए। आज वे हक देश या समाज की संपत्ति कहे जाते हैं। शताब्दियों बाद, अपनी तरह से जीते हुए भी आज तक समाप्त नहीं हुए पर होते जा रहे हैं। आज उनके संरक्षण की चिंता चर्चा स्थानीय गोष्ठियों से लेकर विश्व संस्था संयुक्त राष्ट्र तक में हो रही है।
जैसे-जैसे पेड़ उंगलियों पर गिने-जाने का समय आ रहा है। आज अदृश्य लोक सिधार रहे हैं। चिंता का बढ़ता स्वाभाविक है। यह अलौकिक विश्व एयर कंडीशन कमरों में बैठकर जितनी बहस-मुबाहिसी करता रहे, ग्रंथों से पुस्तकालय पटते रहें, वे जो खत्म हो रहे हैं उनके लिए शिएटल के शब्दों में यही जीवन का अंत है और जिंदा रहने के लिए संघर्षों की शुरुआत भी। ये जीवन संघर्ष अपने जिंदा रहने के लिए ही नहीं अपितु जीवन की व्यापकता को लेकर अपने ही तरीकों से लड़े जाएंगे।
दुनिया के लिए, आज डेढ़ सौ वर्षों बाद भी शिएटल की इस अपील का महत्व होना ही चाहिए। एक विक्षिप्त मानसिकता पूरे विश्व पर हावी है। यह प्रकृति और मनुष्य के उन प्रगाढ़ रक्त-संबंधों को किसी भी कीमत पर मिटाने पर तुली है। उस मानसिकता के लिए विश्व एक बाजार से अधिक कुछ नहीं। यह राजनीति हो या व्यापार अंतत: ये एक-दूसरे से अलग भी कहां और कितने हैं।
वे अविकसित, आदम आदिवासी, जनजातीय गंवार, गरीब और सभ्य भाषा में उनके लिए जितने भी अन्य विशेषण हैं, प्रकृति को पूजते और अजेय मानते हैं। उनके जीवन का विस्तार से निस्तार तक का अस्तित्व इसी के हवाले है। इसके गूढ़ रहस्यों से उलझते रहने वाला वह समाज समुदाय अत्यंत सरल होता है। इसके रहस्य, भद्र तरीके से सही व्यावहारिक और पुख्ता तौर पर उन्नत प्रयोगशालाओं को तकनीकी उनके अर्जित ज्ञान की नींव पर खड़ी है। आज उसे बौद्धिक संपदा मानने को भी यह वैज्ञानिक विश्व तैयार है।
यह देश ही नहीं पूरा विश्व हिमालय को अनेक विशिष्टताओं के लिए जानता है। भू-वैज्ञानिकों में इसके स्वरूप और निर्माण के अध्ययन का आकर्षण है तो समाजशास्त्री और नृवंशशास्त्रियों में यहां की सांस्कृतिक सामाजिक विशिष्टता का। जैव शास्त्री इसकी अथाह जीवन वानस्पतिक क्षमता पर चकित है तो घुमक्कड़ पर्यटक इसकी चोटियों, फूलों की चोटियों और बर्फानी खेलों के लिए ऑली जैसे खूबसूरत ढलानों पर मुग्ध। आम लोगों के लिए तपोभूमि देवभूमि स्वर्ग जैसी मान्यताएं हिमालय के नाम हैं। इसी की गंगा-यमुना करोड़ों की मां भी है।
उन तमाम लोगों को यह भी मालूम होगा कि विश्व की यह सुंदरतम पर्वत शृंखला अत्यंत भंगुर भी है। कटाव, भू-रक्षण, भूगर्भीय हलचलों और अन्य आपदाओं से त्रस्त हिमालय यहां के और विश्व के उन लोगों की दृष्टि में सर्वोपरि है जो उसके आकर्षण स्वरूप के उजड़ने की कल्पना तक नहीं करना चाहते।
अनंत काल से कठोर जीवन जीते हुए ही हिमालय के लोग हिमालय जैसे बने हैं। इसी कारण हिमालय पर निश्चित रूप से उनका अधिकार है। कहने का तात्पर्य यह कदापि नहीं कि अन्य लोग इस पर कोई हक नहीं रखते। बात उस मानसिकता के विरोध की है जो पर्यटन के नाम पर गोचर की चौरस भूमि की हवाई पट्टी में तब्दील करना चाहती है। शराब माफिया को फलने-फूलने का अवसर देने के लिए पहाड़ को शराब का अड्डा बनाना चाहती है। जल विद्युत परियोजनाओं के लिए टिहरी जैसी सभ्यतां को डुबा देती है।

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