भारत को यदि किसी  महामानव ने एकसूत्र में बाँधा तो वे थे आदि शंकराचार्य। आदि शंकराचार्य (Adi Shakaracharya)  अद्वैत वेदान्त के प्रणेता, संस्कृत के विद्वान, उपनिषद व्याख्याता और हिन्दू धर्म प्रचारक थे। हिन्दू धार्मिक मान्यता के अनुसार इनको भगवान शंकर का अवतार माना जाता है। इन्होंने लगभग पूरे भारत की यात्रा की और इनके जीवन का अधिकांश भाग उत्तर भारत में बीता। चार पीठों (मठ) की स्थापना करना इनका मुख्य रूप से उल्लेखनीय कार्य रहा, जो आज भी मौजूद है। शंकराचार्य को भारत के ही नहीं अपितु सारे संसार के उच्चतम दार्शनिकों में महत्व का स्थान प्राप्त है। उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं, किन्तु उनका दर्शन विशेष रूप से उनके तीन भाष्यों में, जो उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता पर हैं, मिलता है। गीता और ब्रह्मसूत्र पर अन्य आचार्यों के भी भाष्य हैं, परन्तु उपनिषदों पर समन्वयात्मक भाष्य जैसा शंकराचार्य का है, वैसा अन्य किसी का नहीं है।
आचार्य शंकर का जन्म  केरल प्रदेश के पूर्णानदी के तट पर बसे कालाड़ी ग्राम में ७८० ईस्वी में हुआ। माता विशिष्टा ने वैशाख शुक्ल पंचमी को इन्हें जन्म दिया।  उनके जन्म तिथि के संबंध में मतभेद है लेकिन अधिकांश लोगों का यही मानना है कि वे ७८८ ई. में आविर्भूत हुए   । उनके पिता का नाम शिवगुरु तथा माता का नाम सुभद्रा या विशिष्टा था।
उनके बचपन से ही मालूम होने लगा कि किसी महान् विभूति का अवतार हुआ है।  पाँचवे वर्ष में यज्ञोपवीत करा कर इन्हें गुरु के घर पढ़ने के लिए भेजा गया और सात वर्ष की आयु में ही आप वेद, वेदान्त और वेदाङ्गों का पूर्ण अध्ययन कर वापस आ गये।  वेदाध्ययन के उपरान्त आपने संन्यास ग्रहण करना चाहा किन्तु माता ने उन्हें आज्ञा नहीं दी।
एक दिन वे माँ के साथ नदी पर स्नान करने गये, वहाँ मगर ने उन्हें पकड़ लिया।  माँ हाहाकार मचाने लगी।  शंकर ने माँ से कहा तुम यदि मुझे संन्यास लेने की अनुमति दो तो मगर मुझे छोड़े देगा।  माँ ने आज्ञा दे दी।  जाते समय माँ से कहते गये कि तुम्हारी मृत्यु के समय मैं घर पर उपस्थित रहूँगा।  घर से चलकर आप नर्मदा तट पर आये, वहाँ गोविन्द-भगवत्पाद से दीक्षा ग्रहण की।  उन्होंने गुरु द्वारा बताये गये मार्ग से साधना शुरु कर दी अल्पकाल में ही योग सिद्ध महात्मा हो गये।  गुरु की आज्ञा से वे काशी आये।  यहाँ उनके अनेक शिष्य बन गये, उनके पहले शिष्य बने सनन्दन जो कालान्तर में पद्मपादाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए।  वे शिष्यों को पढ़ाने के साथ-साथ ग्रंथ भी लिखते जाते थे।  कहते हैं कि एक दिन भगवान विश्वनाथ ने चाण्डाल के रुप में उन्हें दर्शन दिया और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने और धर्म का प्रचार करने का आदेश दिया।  जब भाष्य लिख चुके तो एक दिन एक ब्राह्मण ने गंगा तट पर उनसे एक सूत्र का अर्थ पूछा।  उस सूत्र पर उनका उस ब्राह्मण के साथ आठ दिन तक शास्रार्थ हुआ।
बाद में मालूम हुआ कि ब्राह्मण और कोई नहीं साक्षात् भगवान् वेद व्यास थे।  वहाँ के कुरुक्षेत्र होते हुए वे बदरिकाश्रम पहुँचे।  उन्होंने अपने सभी ग्रंथ प्राय: काशी या बदरिकाश्रम में लिखे थे, वहाँ से वे प्रयाग गये और कुमारिल भ से भेंट की।  कुमारिल भ के कथनानुसार वे माहिष्मति नगरी में मण्डन मिश्र के पास शास्रार्थ के लिए आये।  उस शास्रार्थ में मध्यस्थ थीं मण्डन मिश्र की विदुषी पत्नी भारती।  इसमें मण्डन मिश्र की पराजय हुई, और उन्होंने शंकराचार्य का शिष्यत्व ग्रहण किया।  इस प्रकार भारत-भ्रमण के साथ विद्वानों को शास्रार्थ में पराजित कर वे बदरिकाश्रम लौट आये वहाँ ज्योतिर्मठ की स्थापना की और तोटकाचार्य को उसका माठीधीश बनाया।  अंतत: वे केदार क्षेत्र में आये और वहीं इनका जीवन सूर्य अस्त हो गया।
शंकर की कृपा से जन्में बालक का नाम शंकर पड़ा।  आठवें वर्ष में शंकर ने सन्यास ले लिया।  गुरु की खोज में ओंकारेश्वर पहुँचे जहाँ इन्हें गोविन्दाचार्य मिले।  तीन वर्ष अध्ययन करके बारह वर्ष की आयु में ये काशी पहुँचे।  काशी में गंगा स्नान करके लौटते समय एक चांडाल को मार्ग से हटो कहा तब चांडाल ने इन्हें ‘अद्वैत’ का वास्तविक ज्ञान दिया और काशी में चांडाल रुपधारी शंकर से पूर्ण शिक्षा प्राप्त की। इन्होंने केदार धाम में ३२ वर्ष की आयु में शिवसायुज्य प्राप्त किया।
शंकराचार्य का कृतित्व
आचार्य शंकर ने १४ वर्ष की उम्र में ब्रह्मसूत्र, गीता, उपनिषद् पर भाष्य लिखे।  सोलह वर्ष की उम्र में वेदव्यास से भेंट हुई।
प्रयाग में कुमारिल भट्ट से मिले, महिष्मति में मंडन मिश्र से शास्रार्थ किया।
भगवान् शंकर के संबंध में जो भी पाठ्य सामग्री प्राप्त है तथा उनके जीवन संबंध में जो भी घटनाएँ मिलती हैं उनसे ज्ञात होता है कि वे एक अलौकिक व्यक्ति थे।  उनके व्यक्तित्व में प्रकाण्ड पाण्डित्य, गंभीर विचार शैली, अगाध भगवद्भक्ति आदि का दुर्लभ समावेश दिखायी देता है।  उनकी वाणी में मानों सरस्वती का वास था।
उनके ही समय में भारत में वेदान्त दर्शन अद्वैतवाद का सर्वाधिक प्रचार हुआ, उन्हें अद्वैतवाद का प्रवर्त्तक माना जात है।  ब्रह्मसूत्र पर जितने भी भाष्य मिलते हैं उनमें सबसे प्राचीन शंकर भाष्य ही है।
उनके लिखे ग्रंथों की संख्या २६२ बतायी जाती है, लेकिन यह कहना कठिन है कि ये सारे ग्रंथ उन्हीं के लिख हैं।  उनके प्रधान ग्रंथ इस प्रकार हैं – ब्रह्मसूत्र भाष्य, उपनिषद् भाष्य, गीता भाष्य, विष्णु सहस्रनाम भाष्य, सनत्सुजातीय भाष्य, हस्तामलक भाष्य आदि।इन्होंने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण करके बौद्ध धर्म को मिथ्या प्रमाणित करके वैदिक धर्म को पुनरुजीवित किया था ।  इन्होंने भारतवर्ष में चार मठों की स्थापना की थी जो अभी तक बहुत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं और जिनके प्रबंधक तथा गद्दी के अधिकारी शंकराचार्य कहे जाते है । वे चारों स्थान निम्न- लिखित हैं—(१) बद्रिकाश्रम, (२) करवीरपीठ, (३) द्वारिका- पीठ और (४) शरदापीठ । इन्होंने अनेक विधर्मियों को भी अपने धर्म में दक्षित किया था । ये शंकर के अवतार माने जाते है ।
बिहार के सहरसा स्थित महिषी गाँव (प्राचीन काल में इसे महिष्मा के नाम से जाना जाता था) में विश्व विख्यात दार्शनिक मंडन मिश्र का आविर्भाव हुआ था, साथ ही महामान्य आदि शंकराचार्य के पवित्र चरण भी पड़े थे। इसी स्थल पर जगत जननी उग्र तारा का प्राचीन मंदिर भी अवस्थित है और इसे “सिद्धता” भी प्राप्त है। यह भी उल्लेख मिलता है कि शिव तांडव में सती कि बायीं आँख इसी स्थान पर गिरी थी, जहाँ अक्षोभ्य ऋषि सहित नील सरस्वती तथा एक जाता भगवती के साथ महिमामयी उग्रतारा की मूर्ति भी विराजमान है।
पौराणिक आख्यानों की मानें तो जब भगवान शिव महामाया सती का शव लेकर विक्षिप्त अवस्था में ब्रह्मांड का विचरण कर रहे थे सती की नाभि महिषी गाँव में गिरी थी। मुनि वशिष्ठ ने उस जगह माँ उग्रतारा पीठ की स्थापना की। इसीलिए यह मंदिर सिद्ध पीठ और तंत्र साधना का केंद्र है। इस मंदिर से सौ कदम दूर लगभग दो एकड़ की एक वीरान भूमि है जहाँ पैर रखते ही एक अदृश्य आकर्षण आज भी होता है, इसी स्थान पर उस महापुरुष मंडन मिश्र का जन्म हुआ था जिनकी पत्नी भारती ने अपने पति के स्वाभिमान की रक्षा के लिए आदि शंकराचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित किया था।
इस पराजय के पश्च्यात आदि शंकराचार्य ने मंडन मिश्र को अपना उत्तराधिकारी बनाया जो साठ  वर्षों तक द्वितीय शंकराचार्य के रूप में विख्यात हुए। यह घटना आज से लगभग 2400 वर्ष पूर्व की है और तब से लेकर अब तक सत्तर शकाराचार्य हो चुके हैं। अतीत में और पीछे जाएँ तो पाते हैं कि मुनि वशिष्ठ ने हिमालय की तराई तिब्बत में उग्रतारा विद्या की महासिद्धी के बाद धेमुड़ा (धर्ममूला) नदी के किनारे स्थित महिष्मति (वर्तमान महिषी) में माँ उग्रतारा की मूर्ति स्थापित की थी। किंवदंतियां यह भी है कि निरंतर शास्त्रार्थ के कारण यहाँ के तोते और अन्य पक्षी भी शास्त्र की बातें करते थे।

आदि शंकाराचार्य ने ३२ वर्ष की आयु में अपना शरीर छोड़ा था। लेकिन इसके पहले ही वे देश के चारो कोनों पर चार पीठ बना गए। सभी महत्वपूर्ण ग्रंथों और ब्रह्मसूत्र का भाष्य लिखा। सन्यासियों के लिए दसनामी परंपरा शुरू की और अन्य अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए। जब वे सिर्फ आठ साल के थे तो उनका उपनयन संस्कार हुआ। उसी उम्र में वे वेद मंत्रों का स्पष्ट और शुद्ध उच्चारण करने लगे थे। वे बिना पुस्तक के पन्ने पलटे ही, श्लोकों की व्याख्या कर देते थे। आठ साल के इस विलक्षण बालक को देख कर दिग्गज विद्वान भी चकित थे। कुल ३२ सालों में ही उन्होंने जितने महत्वपूर्ण काम किए, उसे करने में एक साधारण आदमी को कई जन्म लग जाएंगे। इसीलिए आदि शंकराचार्य को अवतार कहा जाता है। लेकिन मनुष्य देह में जन्म लेने के कारण मनुष्य का अभिनय करना पड़ता है ताकि लोगों को शिक्षा मिल सके। एक बार आदि शंकराचार्य गंगा स्नान कर वापस आ रहे थे। तभी एक चांडाल बेचने के लिए मांस ले जा रहा था और उसकी देह शंकराचार्य से छू गई। शंकराचार्य ने कहा- तूने मेरा शरीर अपवित्र कर दिया? चांडाल हंसा और बोला- महाराज, न मैंने आपको छूआ और न आपने मुझे। क्योंकि आप भी आत्मा हैं और मैं भी। फिर मैं आपको छू ही कैसे सकता हूं। आत्मा को तो कोई छू ही नहीं सकता। कहा जाता है कि स्वयं भगवान ने लोगों की शिक्षा के लिए यह अभिनय किया। ताकि लोग भेदभाव, छुआछूत की मानसिकता से ऊपर उठें। शंकराचार्य इस घटना के पहले ही जानते थे कि ऐसा होने वाला है। लेकिन लोक शिक्षा के लिए उन्होंने यह घटना होने दी।
भारतीय हिंदुत्व की धारा के प्राणतत्व हैं शंकर। जिस समय भारतीयता और हिंदुत्व की जड़ें चरमरा रही थीं , तब शंकर का इस पुण्यभूमि पर प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने सुप्तप्रायः धार्मिक परिवेश में नूतनतम और सर्वाधिक मूल्यवान सिद्धांतों का सृजन किया। सदियाँ बीत गईं परन्तु आज भी जब कभी धर्म के पर्वत शिखरों पर मान्यताओं के स्वर्ण कलश प्रतिष्ठापित किये जाते हैं ; शंकर स्वयंमेव प्रासंगिक हो उठते हैं।आदि शंकराचार्य भारत की पहचान हैं ,भारतीयता की देशना हैं और समग्र विश्व के लिए सात्विक कुंजियों के संदेशवाहक हैं। तभी तो उन्हें जगद्गुरु कहा गया ; अर्थात सम्पूर्ण विश्व के लिए के लिए ज्ञान के पुंज।  शंकर मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में जितना कुछ कर गुजरे, उसके लिए कईं जन्म भी कम पड़ते हैं। आध्यात्मिक जगत आज जिस अद्वैत वेदांत के स्वर्ण स्तम्भों पर विराजमान है; उसके पाये  आदि शंकर की मौलिक चेतना की भावभूमि पर टिके हैं।

दक्षिण भारत के केरल प्रान्त में एक गाँव है – काल्टी। वहां एक नम्बूदरी ब्राह्मण कुल में शिवगुरु नामपुद्रि और विशिष्टा देवी के घर  बैसाख माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी को 788  ईस्वी में शंकर के जन्म का उल्लेख मिलता है। हालाँकि उनके जन्म के समय को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं तथापि यही वर्ष उनके जीवन जन्म का सर्वाधिक तथ्यात्मक वर्ष भी जान पड़ता है।धरा पर अवतरित होने वाली महान विभूतियों के लक्षण भी प्रायः विशिष्ट ही हुआ करते हैं शंकर भी अछूते न थे। उनके कृत्य देखकर माता-पिता को लगता क़ि जैसे उन्हें अपने इस जीवन के समस्त उद्देश्यों और लक्ष्यों का सुस्पष्ट भान है।आठ वर्ष के होते – होते उन्होंने चारों वेदों को कण्ठाग्र कर लिया था।शकर की अद्वितीय प्रतिभा और प्रज्ञा की पुलक उनके सब कामों में दीखती थी। बाल्यकाल में ही उन्होंने ‘नीर क्षीर विवेक’ का दृष्टान्त प्रस्तुत किया। संसार के क्षणिक प्रलोभनों की स्वर्णिम पाश को तोड़  ये वीतराग सन्यासी दिव्य मार्ग की ओर प्रशस्त हुए।उन्होंने संन्यास का वरण किया।

मुमुक्षा की अग्नि शंकर के अंतस्थल में प्रदीप्त थी। वे सत्य के अनुसन्धान में सतत सक्रिय रहे।उन्होंने अपने ग्रंथों में स्वयं को गोविन्द के शिष्य के रूप में निरूपित किया है।जिस समय शंकर ने अपनी आध्यत्मिक यात्राओं का श्रीगणेश किया, तब भारत अनेक धार्मिक प्रभावों और मतों के बीच संघर्षरत था। दक्षिण भारत में बौद्ध देशना रुग्णता को प्राप्त हो चुकी थी जबकि वैदिक धर्म अपने बाह्य आडम्बरों और संकीर्ण क्रियाकलापों के तले दबा सिसकता सा प्रतीत हो रहा था। शैवमतावलम्बी भक्तों का एक बड़ा खेमा ‘अटियार’ तथा ‘वैष्णवमतावलम्बी ‘आलवार’ ईश्वर भक्ति के प्रचार में संलग्न थे। दक्षिण भारत का तात्कालीन पल्लव साम्राज्य आदर्श अवस्था में था। धार्मिक जाग्रति के कार्यकलाप राज्य शासन  व्यवस्था के अनिवार्य अंग थे। बौद्ध दर्शन की गूँज हर ओर थी।  उत्तर भारत भगवान बुद्ध की देशनाओं से अनुप्राणित हो रहा था। बौद्ध धर्म की त्यागपरक प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया में ईश्वरवाद की भक्तिमूलक अवधारणा ने बल पकड़ा। विद्वान कुमारिल तथा आचार्य मंडन मिश्र ने कर्मकांड की सहोदरी के रूप में मुक्ति मार्ग की नईं व्यवस्थाएं प्रकट कीं।

उन्हें आदि शंकराचार्य के रूप में मान्यता मिली। उनके विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। ‘स्मार्त संप्रदाय’ में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना गया है। इन्होंने ‘ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य,ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखे। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे भारत में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न जैन और बौद्ध मतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया और भारत में चार कोनों पर चार मठों की स्थापना की। इन पीठों का आधार चार वेदों को बनाया गया। इन चार प्रमुख धार्मिक मठों में दक्षिण की  ‘शृंगेरी शंकराचार्यपीठ’,, पूर्व (ओडिशा)जगन्नाथपुरी में ‘गोवर्धनपीठ’, पश्चिम द्वारिका में ‘शारदामठ’ तथा उत्तर भारत के बद्रिकाश्रम में ‘ज्योतिर्पीठ’ आज भी भारतीय हिन्दू धर्म का प्राणबिन्दु हैं। अनेक भक्त लोग शृंगेरी को शारदापीठ तथा गुजरात के द्वारिका मठ को कालीमठ भी कहते है।

आदि शंकराचार्य के चिंतन में अपने समस्त पूर्ववर्ती दार्शनिक विचारों का सम्पुट है। उन्होंने श्रुतियों और उपनिषदों की परंपरागत चिंतन संपत्ति को अपने स्वाध्याय का आधार बनाया। उनकी सर्वाधिक मौलिक विशेषता यह है कि प्रथम वे सत्यदृष्टा बने तदोपरांत दार्शनिक ! यह निर्विवाद सत्य है कि कोई भी विचारक सत्य  साक्षात्कार किये बिना सच्चे अर्थों में दार्शनिक नहीं कहा जा सकता। न ही उसके दार्शनिक सिद्धांत युक्तिपूर्ण और उपादेय ही सिद्ध हो सकते हैं। उन्हें समझने से  पाश्चत्य विचारक हीगल के उस सिद्धांत की स्वतः ही प्रमाणिकता समाप्त हो जाती है जिसमें  हीगल कहता है -‘प्रत्यय सतत विकासशील है , जो कालक्रम में जाकर पूर्णता को प्राप्त होता है।’ जबकि आदि शंकर उपनिषद की उस सर्वाधिक मौलिक उद्घोषणा की पुष्टि करते हैं जिसमे ऋषि कहता है -‘सत्य अपने प्रारम्भ से ही पूर्ण होता है। अर्थात इसके पूर्णत्व में न कभी घटाव होता है न ही कभी बढ़ोतरी।’ यथा –

‘ओउम पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवा वशिस्यते।।’

आदि शंकर ने जिस कर्म सिद्धांत का प्रतिपादन किया वह व्यवहार और परमार्थ दोनों के लिए प्रासंगिक जान पड़ता है। उनकी अवधारणा है कि आत्म ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति के जीवन में निष्काम कर्म स्वयं फलित हो जाता है। उन्होंने स्पष्ट किया की मलिन चित्त वाले व्यक्ति आत्म साक्षात्कार की अनुभूति से वंचित रहते हैं। जबकि नित्य कर्म के अनुष्ठान में संलिप्त व्यक्ति चित्त शुद्धि को उपलब्ध होता है।जिससे जीव आत्मस्वरुप का बोध करता है। उन्होंने अपने भाष्य में स्पष्ट कहा है कि कर्म द्वारा संस्कारित होने पर ही विशुद्ध आत्मा अपने वास्तविक बोध का वरण करने की सामर्थ्य अर्जित करती है। उनका तर्क था कि ज्ञान की प्रभा से आलोकित व्यक्ति और हृदय अपनी देह का दुरुपयोग कर ही नहीं सकता। जैसा की वासनालिप्त व्यक्ति करता है। शंकर के अनुसार समग्र नैतिकता की जड़ें ज्ञान में ही प्रतिष्ठित हैं।

जहाँ भी जो भी श्रेष्ठतम था उसे आदि शंकराचार्य ने मुक्त हृदय से अंगीकार किया।उनके समय में कोई भी उनसे शास्त्रार्थ में जीत न सका था। अपने सत्यदर्शन ,अनुभूतिजन्य धर्म और तात्विक विश्लेषण से उन्होंने सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया। एक घटना में वाराणसी में उनके सामने एक चांडाल के आ जाने पर जब शंकर के शिष्यों ने चांडाल से रास्ता छोड़ने को कहा तो उसने प्रतिप्रश्न दागा -‘शंकर किससे मार्ग छोड़ने को कह रहे हैं ? शरीर से या आत्मा से ? यदि मैं आत्मा हूँ तो अपवित्र होने का प्रश्न ही नहीं और यदि मुझे शरीर मानकर चला जा रहा है, तो नश्वर शरीर क्या पवित्र और क्या अपवित्र ?’ शंकर विस्मयबोध से उस शूद्र को निहार रहे थे। उसने शंकर के ही तर्कों से उन्हें कटघरे में ला खड़ा किया था।इतिहास साक्षी है कि शंकर उस शूद्र के सम्मुख झुके उसे प्रणाम किया और उसे भी अपना एक गुरु स्वीकारते हुए अपने पथ पर आगे प्रशस्त हो गए।

आदि शंकराचार्य के चरणों में बड़े -बड़े विद्वानों के सर जा झुके। उनकी वाणी को कोई काट नहीं सका। उन्होंने भारत की सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता को एक सूत्र में पिरोये रखने के लिए महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने अपने समय में प्रचलित समस्त अवैदिक मतों का मर्दन किया। उन्होंने वास्तविक और सत्य वैदिक धर्म के उज्जवल स्वरुप को मंडित किया। तांत्रिक उपासना के क्षेत्र में आदि शंकर ने जिस पद्दति का आविर्भाव किया वह अद्वितीय है। उनके द्वारा भाषित ग्रंथों में तंत्र को अंतरंग वास्तु समझकर इसका उल्लेख नहीं किया गया है अपितु भगवती त्रिपुरसुंदरी के अनन्य उपासक बनकर उन्होंने श्री विद्द्या के सम्बन्ध में अत्यंत मूलयवान और प्रभावी सूत्रों की प्रतिष्ठा की है।उनका अप्रितम ग्रन्थ ‘सौंदर्य लहरी ‘ इसका प्रमाण है। ‘भज गोविन्दम्’, ‘विवेक चूड़ामणि’,’आनंद लहरी’, ‘भवान्यष्टकम्”उपदेशसाहस्त्री’,’सतश्लोकी’,  उनकी विश्व प्रसिद्द कृतियाँ हैं।आदि शंकर बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनका जीवनवृत्त अनेक भावों का सुसंचय है। वे दार्शनिक भी थे ,कवि भी ,ज्ञानी भी और संत वैरागी भी। उपदेष्टा के रूप में उनका कोई मुकाबला नहीं, तो उन जैसा कोई समाज सुधारक भी नहीं। उन्होंने अखंड भारत का भ्रमण किया। गाँव-गाँव, गली-गली धर्म की अलख जगाई। कैलाश मानसरोवर यात्रा के उपरान्त मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में शंकर शिवस्वरूप हो गए। बूँद सागर में जा मिली।उत्तराखंड में उनकी समाधि है।

————————-

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here