( मां वैष्णों देवी के दरबार में अखरोट और सूखा सेब प्रसाद के तौर पर मिलता है। इससे जम्मू-कश्मीर के उत्पाद की बिक्री होती है और स्थानीय लोगों की आमदनी बढ़ती है। लेकिन उत्तराखंड के तीर्थ स्थानों में मैदानी क्षेत्रों से पैक सामान ही प्रसाद के तौर पर मिलता है। क्या उत्तराखंड सरकार को इस दिशा में नहीं सोचना चाहिए कि किस तरह स्थानीय उत्पाद को तीर्थों के प्रसाद से जोडक़र स्थानीय लोगों की आमदनी बढ़ई जाए। वरिष्ठ पत्रकार व्योमेश चन्द्र जुगरान की रिपार्ट—)
………. पुरानी घटना है। वर्ष 2009 की। बदरीनाथ के कपाट खुलते वक्त मैं वहीं था। अखंड ज्योति के दर्शनों के समय लोग प्रसाद के रूप में घृत में लिपटी भगवान के वस्त्र की एक कतरन भी पा रहे थे। यह वही गरम वस्त्र होता है जिसे पास के जनजातीय गांव माणा की कोई कन्या भेड़ के ऊन से अपने हाथों से बनाती है। कपाट बंद होते समय इस वस्त्र को घी में सानकर और फिर भगवान को कंबल के रूप में ओढ़ाकर गर्भगृह में छह माह के लिए सुला दिया जाता है। कपाट खुलते समय इसी वस्त्र का एक-एक धागा दुर्लभ प्रसाद माना जाता है।
माणा गांव में कभी घर-घर हथकरघे हुआ करते थे और कालीन व अन्य हस्तशल्पि उत्पादों का ठीक-ठाक कारोबार यहां था। इन उत्पादों को ये लोग सर्दियों में निचली घाटियों की ओर अपने अस्थाई ठिकानों में साथ ले जाते थे। वहां बाजार तक पहुंच आसान थी। पर अब न हस्तशल्पि है और न बाजार। नई पीढ़ी गांव में वापसी नहीं चाहती।
बहरहाल, दर्शन इत्यादि के बाद माणा पहुंचा तो इक्का-दुक्का घरों में ही लोग थे। ज्यादातर अभी निचले इलाकों की अपनी बसासतों से लौटे नहीं थे। व्यास गुफा के रास्ते में पडऩे वाले एक घर की दीवार पर छोटे-छोटे दन (आसननुमा कालीन) सजे हुए थे। मैं पास गया तो एक अधेड़ महिला मिली। मुझे गढ़वाली में बतियाते देख तुरंत आत्मीय हो उठी। उसने अपने परिवार के संग खड्डियों पर काफी मेहनत से ये दन/आसन तैयार किए थे। व्यास गुफा तक आने वाले तीर्थयात्रियों में से कोई इनका ग्राहक निकल आए, इसी आस में उसका पूरा दिन बीतता है। लेकिन बक्रिी का संयोग कभी-कभी ही बन पाता है।
महिला अपना यह दर्द बांट ही रही थी कि उसकी नजर गुफा के दर्शन कर लौटते एक परदेसी जोड़े पर पड़ी। उसने अनुरोध किया कि मैं उन्हें पास बुलाऊं और आसन खरीदने को मनाऊं । मैंने आवाज देकर जोड़े को पास तो बुला लिया और सूक्ष्म परिचय पाने के बाद उनसे खरीददारी का आग्रह भी किया। युगल चंडीगढ़ का था। दोनों ने मेरा मान रखते हुए आसन को उलटा-पुलटा जरूर और थोड़ा मोल-भाव भी किया, पर खरीदने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
संयोग से मेरे बैग में सुबह मंदिर से प्राप्त प्रसाद की घृत लगी वह कतरन मौजूद थी। मैंने इसे निकालकर भगवान बदरी विशाल से जुड़े महात्म्य को संक्षेप में इस जोड़े को समझाया और कहा कि वे चाहें तो बदरीनाथ के प्रसाद रूप में इस आसन को खरीद सकते हैं। ऐसा कर वे इस दूरस्थ इलाके के स्त्री समाज की उद्यमशीलता में भी कहीं न कहीं साहस भर सकते हैं। मेरी बात उनको रीझ गई। पत्नी ने दाम पूछे और बगैर मोलभाव किए रुपये महिला की मु_ी में रख दिये। उन्होंने आसन को माथे से लगाकर हाथ जोड़ते हुए खुशी-खुशी विदा ली। थोड़ी देर बाद मैं भी गंतव्य को बढ़ चला। व्यास गुफा से भी ऊपर सरस्वती नदी की ओर बढ़ते हुए सोचने लगा कि सुबह मंदिर के दर्शन फलीभूत हुए और जो प्रसाद पाया, उसका असल स्वाद कितना मीठा था। लेकिन यह कसक बाकी थी कि काश मंदिर के प्रसाद वाली थाली में माणा की बुनकरी का हुनर भी कोई स्थायी जगह बना पाता !
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(वरिष्ठ पत्रकार व्योमेश चन्द्र जुगरान दिल्ली की पत्रकारिता में जाना पहचाना नाम हैं।  पौड़ी में पले-बढ़े जुगरान उत्तराखंड आंदोलन में भी सक्रिय रहे। वे हिमालयीलोग पोर्टल के लिए लगातार लिखते रहे हैं।)

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