दिल्ली से लेकर देश-विदेश में इस लेख को पढ़ने वाले दोस्तो क्या आपने कभी अपने पुरखों के बनाए पुंगड़ों (खेतों) को याद किया है। जिन पुंगड़ों को बनाने में कई पीढ़ियां खप गईं होगी, उन्हें छोड़ने में हमने कोई वक्त नहीं गंवाया।
दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में पल बढ़ रही पीढ़ी को भद्वाड़, सारी, पुंगड़ा, सगोड़ा, स्यारा, उखड़ जैसे शब्दों की कोई जानकारी नहीं है, फिर विदेशों में पल बढ़ रही पीढ़ी से हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं।  यह सच है कि रोजगार की मजबूरी हमें शहरों को पालयन करने पर मजबूर करती रही है। शहरों में रहने वाले हम लोग भी पहाड़ में रहने वालों को पलायन रोकने का  भाषण देते रहते हैं, लेकिन अब उन लोगों का पहला कर्तव्य है जो इतना पैसा कमा चुके हैं कि वे गांवों की अपनी पुश्तैनी संपत्ति को भी संभालने की स्थिति में आ गये हैं। ऐसे शहरी उत्तराखंडियों को अब अपनी खेती पर ध्यान देना चाहिए। पहाड़ जाकर बागवानी को बढ़ावा देना चाहिए।
सिक्किम आज बागवानी पर बहुत ध्यान दे रहा है। हिमाचल प्रदेश ने भी सेब समेत कई तरह की बागवानी का सफलतम उदाहरण पेश किया है। इसलिए हमें अब उत्तराखंड की सरकार पर बागवानी को मिशन मोड के तौर पर शुरू करने के लिए दबाव बनाना चाहिए। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों ने भी अपनी परंपरागत खेती नहीं छोड़ी। उन्होंने प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से उसे उन्नत कर दिया। जबकि हम अपनी खेती को छोड़ने के खतरों को पहचान नहीं पा रहे हैं। हमारे पुरखों की कई पीढ़ियां जिन खेतों को बनाने में खप गईं, उसे खाली छोड़ देने से अब वहां झाड़ियां पैदा  हो गई हैं। जहां कभी सट्टी,क्वोदा, झंगोरा, मुंगरी, कलौ,छीमी आदि की फसलें लहलहाती थी आज वहां जंगली सुअरों और बंदरों ने डेरा डाल दिया है, और हम हैं कि पहाड़ी गीतों की सीडी सुनकर अपने को पहाड़ प्रेमी मान रहे हैं। अब आप ही बताए अपनी परंपरागत खेती को बचाने का क्या रास्ता है।

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