बाठ गोडाई क्या तेरो नौं च,
बोल बौराणी कख तेरो गौं च?
बटोई-जोगी ना पूछ मै कू,
केकु पूछदि क्या चैंद त्वै कू?
रौतू की बेटी छौं रामि नौ च
सेटु की ब्वारी छौं पालि गौं च।
मेरा स्वामी न मी छोड़ि घर,
निर्दयी ह्वे गैन मेई पर।
ज्यूंरा का घर नी जगा मैं कू
स्वामी विछोह होयूं च जैं कू।
रामी थैं स्वामी की याद ऐगे,
हाथ कूटलि छूटण लैगे।
चल, रामि छैलु बैठि जौंला, आपणी खैर उखीमा लगौंला।
जो जोगी आपणा बाठ लाग,
मेरा शरल्ील ना लौगा आग।
जोगी ह्वैकि भी आंखि नी खुली,
छैलु बैठलि तेरि दीदी -भूली।
बौराणी गाली नी देणि भौत,
कख रैंद गौं को सयाणो रौत।
जोगीन गौं मा अलेक लाई,
भूको छौं भोजन दे वा माई।
— उत्तराखंड में इस लोकगीत पर नृत्य नाटिका व नाटक भी खेला जाता रहा है। हारमोनियम और ढोलक की थाप पर रामी-बौराणी की लोकगाथा सुनने का आनंद ही कुछ और है।
यह कहानी उत्तराखंड की महिलाओं के त्याग व सघर्ष की कथा बताती हैं। सीता और सती सावित्री की तरह रामी भी उत्तराखंड में सतीत्व की आदर्श प्रतिमा है। रामी का पति विवाह के बाद परदेस चला जाता है। वह वर्षों तक नहीं लौटा। रामी उसकी याद में दिन काटती रहती है। इस तरह नौ साल बीत  जाते हैं। एक दिन जब रामी खेत में काम कर रही थी तो एक साधु वहां से गुजरता है। वह रामी से उसका परिचय पूछता है।
परिचय पूछने के  बाद वह रामी से प्रणय निवेदन करता है, लेकिन रामी नाराज हो जाती है और साधु को खरी-खोटी  सुना देती है। साधु गांव में रामी के घर जाकर रामी की सास से भोजन मांगता है। तब तक रामी भी आ जाती है। रामी उसे भेजने देने के लिए राजी नहीं होती है, लेकिन साधु के क्रोध के भय तथा सास के पहने पर भोजन बना देती है। भोजन को वह पत्तल में परोश कर लाती है, लेकिन साधु कहता है कि उसे उस थाली में भोजन दो जिसमें रामी का पति खाता था। इस पर रामी और भी नाराज हो जाती है और साधु को घर से चले जाने को कहती है।
इसके बाद साधु अपना परिचय देता है कि वह रामी का ही पति है। साधु भेष के कारण रामी  और उसकी सास यानी साधु की मां उसे पहचान नहीं पाए थे। रामी अपने पति को प्रसन्न हो जाती है। कुमांयू में इसी तरह की गाथा ‘रूपा’ के नाम से प्रचलित है।

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