वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र धस्माना

0
1682

नदी की तरह बहता रहा, समुद्र में जाकर ही मिलना है व खारा होना है
–वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र धस्माना

महात्मा गांधी या गांधीवाद, हिमालय या रेगिस्तान, वामपंथ हो या पूंजीवाद यानी भी कोई विषय, राजेन्द्र धस्माना इस तमाम विषयों का चलता-फिरता इन्साइक्लोपीडिया हैं। किसी भी मुद्दे पर नये विचार रख सकते हैं। दूरदर्शन में समाचार संपादक रहने के बाद सम्पूर्ण गांधी वांग्मय के १०० खंडों में से अंतिम एक दर्जन खंडों का संपादन करने वाले धस्माना जी राहुल सांकृत्यायन की परंपरा के यायावर भी हैं। उन्होंने कविताएं और नाटक भी लिखे हैं और कर्ई चर्चित भी रहे। सरकारी नौकरी में रहते हुए भी उन्होंने कई बार सरकार की नीतियों की खुली आलोचना की। खासतौर पर उत्तराखंड आंदोलन के दौरान उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव पर कटाक्ष करते हुए ‘जै भारत जै उत्तराखंड’नाटक लिखा व मंचन भी कराया। मशहूर पत्रकार व समाजसेवी राजेंद्र धस्माना से पंदमादत्त नंबूरी की बातचीत के अंश—

अपने जीवन को लेकर आप क्या कहेंगे? अपनी उपलब्धियों से क्या संतुष्ट हैं?
-उपलब्धियां तो गिनी नहीं, यह देखा ही नहीं कि उपलब्धि क्या है। बस काम करते रहते हैं। नदी की तरह बहता रहा, समुद्र में जाकर ही मिलना है व खारा होना है। कभी भी कोई काम उपलब्धियों को ध्यान में रखकर नहीं किया। नौकरी भी उपलब्धि को लेकर नहीं की। नदी की तरह जीवन दिया। भला नदी की क्या उपलब्धि? यही कि बस वह बह रही है।
पुनर्जन्म लेना चाहेंगे?
मैं पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता। मेरे हिसाब से यह हो नहीं सकता है। आत्मा एक व्याप्ति है, एक अंश है। जब शरीर छोड़कर चली गई तो पता नहीं कहां चली जाती है। वह दोबारा नहीं आती है। जैसे एक वृक्ष का पुनर्जन्म उसके सामने ही हो जाता है। उसके फल, बीज ही उसका पुनर्जन्म  है। मनुष्य का पुनर्जन्म उसके पुत्र-पुत्रियों में होता है। जो कहते हैं कि इस जीवन का फल इसी जीवन में मिल जाता है। वह वास्तव में बच्चों को मिलता है। यदि पुनर्जन्म हो तो फिर जनसंख्या नियंत्रण ही न हो। आत्मा नहीं आती, जीन्स आते हैं। जीवन एक शारीरिक प्रक्रिया है। जिसके हम ही कारण हैं। पुत्र इसी जन्म में आते हैं। पेड़ का पुनर्जन्म क्या है-एक नए पेड़ का होना।
राजेन्द्र धस्माना को लोग किस तरह जानें- पत्रकार, नाटककार, गांधी जी विशेषज्ञ, मानवाधिकारवादी, उत्तराखंडी या कुछ और?
यह लोगों पर निर्भर है। अलग-अलग लोग एक ही व्यक्ति को अलग-अलग रूप में देखते हैं। उन्होंने जिस रूप में उसे देखा होता है, उसी रूप में देखते हैं। पहचान की दृष्टि से तो वह सिर्फ एक ही काम करेगा। लोग स्वतंत्र हैं, जिस रूप में देखें।
कोई महत्वाकांक्षा, जिसे अब भी पूरा करना चाहते हों?
महत्वाकांक्षा कभी नहीं रही। किसी एक के पीछे नहीं रहा। जो काम सामने रहा, उसे करता रहा। मैं करियर के बारे में स्पष्ट नहीं रहा। काम के प्रति भी नहीं। पूर्व निर्धारित काम कभी नहीं किया। मंत्रियों से भी नहीं मिलता। ऐसा होता तो कभी का कुछ झपट लेता। इन चीजों की इच्छा भी नहीं होती।

आप जो कुछ बनें, कैसे बनें?
अपने-आप नदी की तरह। पहले तो यह कि बना भी कि नहीं। बना क्या? एक तो सरकारी नौकरी की। जितना ज्यादा फील्ड में काम करोगे, उतने ज्यादा लोग जुड़ेंगे। सिर्फ स्वार्थ के लिए काम करोगे तो लोग कटेंगे। समाज के लिए करोगे तो झलकता है कि काम करता है।
आपके संघर्ष क्या रहे हैं?
यहां संघर्ष किया नहीं जाता है। भारत की परिस्थितियां ही ऐसी हैं कि हर एसक को संघर्ष करना ही पड़ता है। गरीब लोगों के सामने अस्तित्व की इतनी लड़ाई रहती है कि उसे संघर्ष करना ही पड़ता है। लोकतंत्र में सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि लोगों को पढ़ाए व नौकरी दे। जब सरकार व परिवार ने नहीं दिया तो संघर्ष करना पड़ा। पहाड़ हो या कहीं और गरीब परिवार को तो संघर्ष करना ही होता है। जबरदस्ती किसी की संघर्ष करने की इच्छा नहीं होती। मुझे अपनी रोजी-रोटी और पढ़ाई का खर्चा निकालना पड़ा। इस देश में साधनविहीन युवक के लिए संघर्ष उसकी नियति है।
आप अपना प्रेरणास्रोत किसे मानते हैं?
मैं मानता ही नहीं। किसी से प्रभावित रहने वाला व्यक्ति सीमित हो जाता है। प्रभावों में रहने वाला काम नहीं कर सकता है। प्रेरणा शब्द कवि ज्यादा इस्तेमाल करते हैं, लेकिन खुद भी उसे कविता लिखने में मेहनत करनी ही होती है। परिवार में भी प्रेरणा से काम नहीं होता बल्कि सामूहिक जिम्मेदारी से काम करना होता है।
ईश्वर को लेकर आपकी दृष्टि क्या है?
जब सवालों के जवाब नहीं मिलते तो ईश्वर का नाम दे दिया। उसे ईश्वर के नाम सौंप दिया। सबसे बड़ा ईश्वर तो मनुष्य ही है।
कोई ऐसी प्रिय चीज जिसे खोया हो?
सिर्फ वक्त खोया है। ज्यादातर समय बड़े परिवार के चक्कर में खोया। करीब 20-25 साल तक 18-19 लोगों का परिवार था। वह भी दिल्ली जैसे शहर में। नींद व समय खोया मैंने।
कुछ ऐसी बातें व चीजें जिसे छुपाना चाहते हैं?
कोई चीज नहीं छुपाई। मेरे बारे में सबकुछ बच्चों को भी पता है। मैं पैसा, चिट्ठी व मन की बात कुछ भी नहीं छुपाता। छिपाना भी क्या था। भूलकर छुप जाए या याद न रहे तो अलग बात है।

आपकी नजर में नैतिकता क्या है?
कभी सोचा ही नहीं, पर जो अपने कर्तव्यों का परिवहन करता रहेगा, कर्तव्यनिष्ठ हो, वही नैतिक होगा। यह कोई दिखावे के लिए नहीं होता। दिमाग के भीतर नैतिकता एक स्वायत्तता है। यदि वह कर्तव्यनिष्ठ होगा तो उसमें नैतिकता होगी। यह खुद मनुष्य निर्धारित करता है। निष्क्रिय या निठल्ला होगा तो क्या करेगा। अब देश ही स्वायत्त नहीं बच पा रहा है। देश बिक रहा है। ऐसे में भ्रष्टाचार बढ़ेगा। यदि मनुष्य व समाज कर्तव्यनिष्ठ और कमनिष्ट हों तो फिर नैतिकता की बात नहीं होती।
बीड़ी, शराब को लेकर आपके क्या विचार हैं?
मैं तो छोटी उम्र से ही ड्रिंक करता रहा हूं। यदि मेरा पेट खराब था तो ब्रांडी दे दी जाती थी। अब नहीं पिऊंगा तो परेशानी होगी। यह तो आदतें हैं। सिगरेट तो छोड़ दी, पर ड्रिंक छोड़ना कठिन है। मैं सार्वजनिक तौर पर नहीं पीता हूं। मैं यह नहीं मानता-जैसा खाओ-वैसा मन। भोजन एक इनपुट है। इसे धार्मिक या धर्म से जोड़ना ठीक नहीं है। मैं हर तरह का भोजन लेता रहा। अब ब्लड प्रेशर है। भोजन को लेकर सिद्धांत नहीं मानता। बस यही सिद्धांत माना कि कितना प्रोटीन, कैलोरी आदि चाहिए।

जीवन की कोई घटना जिससे आपमें बदलाव आया?
हम अच्छे खाते-पीते परिवार से थे। शुरू के 10-12 साल तक किसी चीज की कमी नहीं थी, न फल न दूध। दादाजी पंडित थे व पिताजी वैद्य। इतनी बासमती आती थी कि गांव में बांटते थे। लेकिन जैसे ही 9वीं में गया, तो घर की हालत बदल गई थी। उम्र तब 14-15 साल की रही होगी। गांव गया तो घर की स्थिति बदली थी। जो लाला सामान देता था उसने मना कर दिया था। मां ने मुझे गोर (गाय-बैल) चराने जंगल भेजा। वहां से लौटा तो जीवन बदल चुका था। पता चला कि मेरे  पिताजी ने हमें छोड़ दिया है और उसका नतीजा यह हुआ कि आरम से चलने वाला जीवन कांटों और संघर्ष में बदल चुका था।
राज्य गठन के एक दशक में उत्तराखंड के विकास को लेकर आपकी क्या राय है?
मैं अभी (2010) उत्तराखंड से ही लौटा हूं। चांदकोट के डिग्री कॉलेज के एक सम्मेलन में मैंने कई लोगों से पूछा कि वे उत्तराखंड के विकास को लेकर क्या सोचते हैं। मेरे सामने जो बातें आईं वह यह कि लोग दो चीजों को ही विकास मानते हैं : सड़क और संचार व्यवस्था, तीसरा अर्थ जानते ही नहीं है। इस अर्थ से तो हम यह नहीं कह सकते कि विकास नहीं हुआ, लेकिन विकास तो वह है जिसमें साधारण व्यक्ति की जीवनचर्या में सुधार हो, उसकी आमदनी का ग्राफ दिन-प्रतिदिन बढ़ता रहे। उसे हर जरूरी सुविधा उपलब्ध हो जाए। लेकिन ऐसा विकास तो पूरे भारत में नहीं हुआ है। उत्तराखंड को लेकर अलग राज्य के समर्थकों की, जो अपेक्षाएं थी वह पूरी नहीं हुई हैं। हम यह भी जानते हैं कि सरकार के पास जादू की ऐसी कोई छड़ी नहीं है जो हर समस्याओं का समाधान कर दे लेकिन इस एक दशक में विकास के कहीं भी लक्षण नहीं दिखाई दे रहे हैं।

—————————-

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here